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________________ स्याद्वाद अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दोनों एक ही सिद्धान्त के दो पहलू हैं। अनेकान्त वह वैचारिक दृष्टि है जो पदार्थ को नाना रूपों में देखती है और स्याद्वाद वह वचन शैली है जो अनेकांत दृष्टि को निर्दोष भाषा का स्वरूप प्रदान करती है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु को सम्यक् भाषा में प्रतिपादित करने के लिए स्याद्वाद का अवलम्बन लेना होता है । स्याद्वाद स्यात् + वाद् - इन दो पदों से बना है। 'स्यात्' का अर्थ है - कथंचित, किसी अपेक्षा से और वाद का अर्थ है - सिद्धांत, मत या कथन करना। इस प्रकार स्याद्वाद पद का अर्थ हुआ विविध दृष्टि बिन्दुओं से वस्तुतत्व का निरीक्षण - परीक्षण करना । सप्तभंगी सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को प्रस्तुत करती है। हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई है। 'है' और 'नहीं है' हमारे कथनों के दो प्रारूप हैं। किन्तु कभी-कभी हम अपनी बात को स्पष्टतया 'है' (विधि) और 'नही हैं' (निषेध) की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं। अर्थात् सीमित शब्दावली यह भाषा हमारी अनुभूति को प्रकट करने में असमर्थ होती है। ऐसी स्थिति में हम एक तीसरे विकल्प “अवाच्य" या "अवक्तव्य" का सहारा लेते हैं, अर्थात् शब्दों के माध्यम से 'है' और 'नहीं है' की भाषायी सीमा में बांधकर उसे कहा नहीं जा सकता है। इस प्रकार विधि, निषेध और अवक्तव्य जो सात प्रकार का वचन विन्यास बनता है उसे सप्तभंगी कहा जाता है। 1. स्याद् अस्ति, 2. स्याद् नास्ति, 3. स्याद् अस्ति नास्ति, 4. स्याद् अवक्तव्य, 5. स्याद् अस्ति-अवक्तव्य, 6. स्याद् नास्ति अवक्तव्य, 7. स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य । स्याद् शब्द का अर्थ - जैन दर्शन में 'स्याद्' शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में किया गया है। इसका अर्थ होता है • सापेक्ष, कथंचित्, किसी अपेक्षा से । स्याद्वाद सापेक्षता का सिद्धांत है। स्याद् अनेकांत का द्योतक अव्यय है। यह अव्यय इस अर्थ को प्रकट करता है कि "इसके साथ जो कथन किया गया है वह सापेक्ष है अर्थात् इसके अतिरिक्त भी धर्म इस पदार्थ में हैं किन्तु वे विवक्षित मुख्य नहीं है - गौण है | इस विशिष्ट अर्थ को सूचित करने के लिए जैनाचार्यों ने 'स्याद्' शब्द का प्रयोग किया हैं। यह वाक्य में कर यह बताता है कि जो बात कही जा रही है, वह किसी विशेष दृष्टि से कही जा रही है। सरल भाषा में स्याद् का अर्थ 'भी' भी किया जा सकता है, वस्तु ऐसी भी हैं। - 1. स्याद् अस्ति - स्याद् अस्ति अर्थात् कथंचित् किसी अपेक्षा से है । स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से हर वस्तु का अस्तित्व होता है। संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो अस्तित्ववान् नहीं है। किन्तु अस्तित्व के साथ-साथ स्याद् शब्द इस बात का द्योतक है कि उसमें 45
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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