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________________ पाँचवें ने हाथी के कान को पकड़ा और कहा - हाथी न खम्भे जैसा होता है, न दीवार जैसा, अपितु वह तो छाज जैसा होता है। विवाद बढ गया। एक समझदार व्यक्ति ने उन सबकी बातें सुनी और वह बोला' भाइयों। आप सभीने सही जाना है, परन्तु वह अपूर्ण जाना है। हाथी खम्भे जैसा भी है, रस्सी जैसा भी है, दीवार जैसा भी और पेड की शाखा जैसा भी है। आपने हाथी के एक-एक अवयव को पकडकर वैसा समझ लिया है। वास्तव में हाथी का सही स्वरूप तब बनता है जब आप सब की बातों को जोड दिया जाय और आप सब एक दूसरे से सहमत हों | एक-एक अवयव अलग-अलग रहकर शरीर नहीं कहा जा सकता। पूरे अवयव संयुक्त रहकर ही शरीर की संज्ञा पाते हैं। वैसे ही आप सब लोगों का संयुक्त कथन ही हाथी का सही रूप है। अलग-अलग कथन, सब मिथ्या है। अलग-अलग अंश वस्तु का समग्र स्वरूप नहीं है अपितु अंशों का समन्वित स्वरूप ही वस्तु है । __ इस तरह जैन चिन्तकों ने विरोधी धर्मो का एक साथ होना असंभव नहीं माना, विरोधी विचारों को स्वीकार ही नहीं किया अपितु उन विरोधी विचारों के बीच भी समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है। प्रसिद्ध विद्वान उपाध्याय यशोविजयजी ने 'ज्ञानसार' में कहा है - सच्चा अनेकांतवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं कर सकता। वह एकनयात्मक दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य की दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता हैं। अनेकांतवादी न किसी को न्यून और न किसी को अधिक समझता है - उसका सबके प्रति समभाव होता है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहलाने का अधिकारी वही है जो अनेकांतवाद का अवलम्बन लेकर समस्त दर्शनों पर समभाव रखता हो। मध्यस्थभाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटिकोटि शास्त्रों को पढ लेने पर भी कोई लाभ नहीं होता। क्योंकि जहाँ आग्रह बुद्धि होती है वहाँ विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन संभव नहीं होता। अनेकांत दृष्टि को न केवल शास्त्रों तक सीमित रखना चाहिए अपितु जीवन व्यवहार में भी उतारना चाहिए। यदि जीवन व्यवहार में अनेकान्त दृष्टि आ जाती है तो सर्वत्र शांति ही शांति प्रतीत होने लगती है। यदि यह अनेकान्त दृष्टि व्यवहार में नहीं आती है, वहाँ क्लेश, विवाद, संघर्ष और अशान्ति ही मची रहती है। इसलिए तो एक आचार्य ने कहा है जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वहो? तस्स भुवणेक्क गुरूणो णमो अणेगन्तवायस्स ।। जिसके बिना लोक व्यवहार सुविधापूर्वक नहीं चल सकता, उस जगत के एक मात्र गुरू अनेकांतवाद को नमस्कार है। Sanal private
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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