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पाँच ज्ञान के अंतर्गत श्रुतज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है। पाँच ज्ञान में चार ज्ञान स्वार्थ हैं अर्थात् अपने लिए उपयोगी हैं तथा एक श्रुतज्ञान वचनात्मक होने से परार्थ है। जिस प्रकार दीपक स्व-पर प्रकाशी होता है, वह अपने आपको भी प्रकाशित करता है और घट-पट आदि पर पदार्थों को भी प्रकाशित करता है उसी प्रकार श्रुतज्ञान अपने लिए भी उपयोगी है और दूसरों के लिए भी उपयोगी
है।
पांच ज्ञानों में यही एक ऐसा ज्ञान है, जो ज्ञान-दान का साधन बनता है। शास्त्रों में कहा गया है कि गुरू द्वारा शिष्यों को जो ज्ञान मिलता है, वह श्रुतज्ञान के द्वारा ही प्राप्त होता है। केवलज्ञानी भी यदि किसी को ज्ञानदान करते हैं तो श्रुतज्ञान यानि वचनों के आलंबन के द्वारा ही करते हैं। दूसरों को पढ़ाने में उनका केवलज्ञान काम नहीं आता। केवलज्ञान तो दर्पण के समान है। उसमें सब कुछ प्रत्यक्ष दिखता है। पर जहाँ दूसरों को बताने का प्रश्न है, वहाँ तो श्रुतज्ञान का ही एकमात्र सहारा लेना होता है। इसलिए पाँचों ज्ञानों में किसी अपेक्षा से श्रुतज्ञान का महत्व अधिक है। इसे हम समझें और अधिकाधिक विकसित करने का प्रयास करें।
श्रुतज्ञान के भेद
श्रुतज्ञान के चौदह भेद हैं -
1. अक्षरश्रुत, 2. अनक्षरश्रुत, 3. संज्ञिश्रुत, 4. असंज्ञिश्रुत, 5. सम्यक्श्रुत, 6. मिथ्याश्रुत, 7. सादिश्रुत, 8. अनादिश्रुत, 9. सपर्यवसितश्रुत, 10. अपर्यवसितश्रुत, 11. गमिकश्रुत, 12. अगमिकश्रुत, 13. अंगप्रविष्टश्रुत और 14. अनंगप्रविष्टश्रुत।
__ 1. अक्षरश्रुत - अक्षर रूप ज्ञान को अक्षर श्रुत कहते हैं । इसके तीन भेद हैं।
a) संज्ञाक्षरश्रुत, b) व्यंजनाक्षर श्रुत, c) लब्ध्यक्षर श्रुत।
a) संज्ञाक्षर श्रुत - अक्षर की आकृति बनावट या संस्थान को संज्ञाक्षर कहते हैं। उदाहरण स्वरूप अ, आ, इ, ई अथवा A,B,C,D आदि लिपियाँ अन्य भाषाओं की भी जितनी लिपियाँ हैं, उनके अक्षर भी
संज्ञाक्षर समझना चाहिए। b) व्यंजनाक्षर श्रुत - जो मुख से उच्चारित हो वह व्यंजनाक्षर है। व्यंजन का मतलब व्यक्त करना है। जब अकार, इकार आदि शब्दों का उच्चारण किया जाता है तब उससे अर्थ की अभिव्यंजना होती है अतः इसका नाम व्यंजनाक्षर है।
c) लब्ध्यक्षर श्रुत - शब्द ग्रहण होने के पश्चात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो उसके अर्थ के पर्यालोचन के अनुसार ज्ञान उत्पन्न होता है उसे लब्ध्यक्षर कहते हैं।
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