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होली की पौराणिक कथा हिन्दू पुराणों में तथा जैन कथा साहित्य में भी आती है। जैन कथा ग्रन्थों में हुताशिनी (ढूँढा) की कथा प्रसिद्ध है। होलिका नाम की कोई वणिक् कन्या थी जो स्वभाव से चंचल और कामुक प्रवृत्ति वाली थी। वह चरित्र से भृष्ट होकर भी लोगों में अपने सतीत्व की झूठी प्रतिष्ठा स्थापित करना चाहती थी और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह अपनी शिक्षिका, परिव्राजिका को मोहरा बनाती थी। परिव्राजिका पर्णकुटी में रहती थी। होलिका ने अवसर देखकर फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन पर्णकुटी में सोयी परिव्राजिका समेत कुटिया जला दी। लोगों ने चारों ओर यह मिथ्या प्रचार कर डाला कि होलिका सती हो गई। उसने अपनी शील रक्षा के लिए आत्म दाह कर लिया । लोग उस कुटिया की राख को पवित्र राख मानकर शरीर पर लगाने लगे । तब परिव्राजिका, जो व्यन्तरी बन गई थी, उसने उस होलिका के दूराचार का भांडा फोडा। तब लोग होलिका के नाम पर कीचड़ उछालने लगे | उसे गालियाँ देने लगे और प्रतिवर्ष उस दुराचारिणी को जलाने का उपक्रम होने लगा | जैसे दशहरे पर रावण का पुतला जलाया जाता है, वैसे ही होली पर दुराचारिणी होलिका को जलाया जाता है।
_इस प्रकार होली को असत्य और दुराचार का नाश करने वाले त्योहार के रूप में मनाने की प्रेरणा देते है। असदाचार, भ्रष्टाचार के उपर सदाचार की विजय करना- यही होलिका के आख्यान का संदेश है।
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