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________________ मोक्ष शुका देवलोक गुरु चंकमणे - वहीं पर इधर-उधर फिरने में | के कारण। अणाभोगे - उपयोग न होने से। पडिक्कमे देवसिअं सव्वं - दैनिक इन सब दोषों से निवृत्त होता हूँ। भावार्थ : उपयोग न होने से अर्थात् ध्यान न रहने से, राजा आदि के दबाव से अथवा मंत्री, सेठ आदि अधिकारी की परतंत्रता के कारण मिथ्यादृष्टि के रथ यात्रा आदि उत्सव देखने के लिये आने में, घर में से बाहर जाने में, मिथ्यादृष्टि के चैत्य आदि में खड़े रहने में अथवा वहीं पर इधर-उधर फिरने में, दर्शनसम्यक्त्व संबंधी जो कोई अतिचार दिन में लगे हों उन सब दोषों से मैं निवृत्त होता हूँ ।।5।। (सम्यकत्व के अतिचारों की आलोचना) संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु। सकाकख विगिच्छा सम्मत्तस्स इआरे, पडिक्कमे देवसि सव्वं ||6|| . शब्दार्थ संका - वीतराग सर्वज्ञ के वचनों में शंका। पसंस - मिथ्यात्वियों की या कंख - अन्यमत धर्म की इच्छा-कांक्षा। उनकी धर्म क्रिया आदि विगिच्छा - धर्म के फल में संदेह होना की प्रशंसा करना। अथवा साधु-साध्वी का मलिन शरीर या तह - तथा। वस्त्र देखकर उनकी निंदा करना। संथवो - पाखण्डी कुलिंगीसु - मिथ्यादृष्टियों का परिचय करना। सम्मत्तस्स इआरे - सम्यक्त्व अतिचारों से। पडिक्कमे देवसि सव्वं - दैनिक इन सब दोषों से निवृत होता हूँ। भावार्थ : सम्यक्त्व में मलिनता करने वाले पांच अतिचार हैं जो त्यागने योग्य हैं उनकी इस गाथा में आलोचना की गई है। वे अतिचार इस प्रकार हैं - ___ 1. वीतराग सर्वज्ञ के वचन पर देश (अल्प) से अथवा सर्वथा शंका करना यह शंका अतिचार है। 2. अन्य अहितकारी मत को चाहना यह कांक्षातिचार है। 3. धर्म का फल मिलेगा या नहीं ऐसा संदेह करना अथवा निःस्पृह साधु-साध्वियों के मलिन शरीर वस्त्रादि देखकर उनसे घृणा करना अथवा निंदा करना यह विचिकित्सा अतिचार है। 4. मिथ्यात्वियों की अथवा उनकी धर्म क्रिया आदि की प्रशंसा यह प्रशंसा अतिचार है। 5. तथा मिथ्यादृष्टियों से परिचय करना अथवा बनावटी वेश पहनकर धर्म के बहाने लोगों को धोखा देने वाले पाखंडियों का परिचय करना यह कुलिंगिसंस्तव अतिचार है। इन पाँच में से दिन संबंधी जो छोटे या बड़े अतिचार लगे हो उनसे मैं निवृत्त होता हूँ ।।6।। साघु प्रति द्वेषभाव विचिकित्सा अन्य धर्म की इच्छाकाक्षा अन्य दर्शनीयों का परिचय प्रशंसा A TE R A AAAAAAAAAAAA.. RORIRRORRORISARORAKAR
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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