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उसकी स्थिति और अनुभाग को घटा सकती है। उदीरणा करके उदयकाल से पूर्व कर्मों को उदय में लाकर उसे नष्ट कर सकती है। उसके उदय को अशांत करके समता में स्वयं को स्थिर कर सकती है। क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय करने के साथ ही शेष धाती कर्मों का भी सर्वथा क्षय करके वीतराग बन सकती हैं।
यह सारा परिवर्तन आत्मा के पुरुषार्थ में है, न कि किसी ईश्वर, देव-देवी या किसी सत्ताधीश या धनाधीश के हाथ में है। इसी तथ्य को हृदयंगम करके व्यक्ति यदि अशुभबंध से शुभबंध की ओर तथा शुभबंध से कर्म के उपशम, क्षयोपशम और क्षय की ओर कदम बढाए तो मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
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