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________________ तो उसके नशे की शक्ति और नशे की अवधि पहले से अधिक बढ जाती है। यह उदवर्तन अप्रशस्त राग या कषाय की वृद्धि से आयुष्य कर्म को छोडकर शेष सात कर्मों की समस्त अशुभ कर्म प्रवृत्तियों की स्थिति में एवं समस्त पाप प्रकृतियों के रस में वृद्धि करता है। उसी प्रकार कषाय की मंदता के कारण प्रशस्त राग या शुभ भावों की विशुद्धि और पुण्य प्रकृतियों के रस में वृद्धि से भी उदवर्तन होता है। 732 6. अपवर्तना:- पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति अर्थात् काल मर्यादा एवं रस को नवीन कर्म बंध करते समय कम कर देना अपवर्तना है। जैसे किसी व्यक्ति ने अशुभ कर्म का बंध कर लिया किंतु बाद में पश्चाताप, प्रायश्चित आदि से शुभ कार्य में अपने मन को प्रवृत्त किया। उसका प्रभाव पूर्वबद्ध कर्मों पर पडता है। फलतः उस पूर्वबद्ध कर्म की लम्बी स्थिति एवं रस की तीव्रता में न्यूनता आ जाती है। जैसे श्रेणिक राजा ने अपने जीवन काल में तीव्र रस से क्रूर कर्म करके सातवीं नरक का आयुष्य कर्म बांध लिया था किंतु जब वे भगवान महावीर स्वामी की शरण में आये तो भगवान की पर्युपासना करने से उन्हें सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। तदन्तर अपने कृतकर्मों का उन्होंने पश्चाताप किया तो शुभ भावों के प्रभाव से सातवीं नरक के आयुष्य का अपवर्तन होकर वह प्रथम नरक का ही रह गया । यदि कोई व्यक्ति शुभ कर्म करके देवगति का आयुष्य बाँध लेता है किंतु बाद में (उदय आने से पहले) उसके शुभ भावों में गिरावट आ जाए तो उसका आयुष्य बंध निम्नस्तरीय देवलोक का हो जाता है। उसकी शुभता की शक्ति घट जाती है। 7. संक्रमण :- एक प्रकार के कर्म परमाणु की स्थिति आदि का सजातीय दूसरे प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि में परिवर्तन या परिणमन होना संक्रमण हैं। ध्यान रखने की बात है कि उदय में आई हुई कर्म प्रकृतियों में एवं निकाचित कर्म में संक्रमण नहीं होता। संक्रमण कर्मों के सजातीय उत्तर - प्रकृतियों में ही होता है विजातीय उत्तर प्रकृतियों में एवं मूल प्रकृतियों नहीं होता हैं। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म का आयुष्य कर्म या अन्य किसी कर्म में नहीं होता। मतिज्ञानावरणीय कर्म का चक्षु दर्शनावरणीय के रूप में नहीं होता है। प्रसत्रचन्द्र राजर्षि ध्यानावस्था मन ही मन मंत्र मे युद्ध करती है। 69 पश्चाताप करके संक्रमण किया संक्रमण श्रुत ज्ञानावरणीय कामति ज्ञानावरणीय के रूप में हो सकता हैं। इस सजातीय संक्रमण में भी कुछ अपवाद है, जैसे आयुष्य कर्म की नरकायु आदि चारों प्रकृतियों का अन्य आयुओं में परस्पर संक्रमण नहीं होता न दर्शन मोहनीय का चारित्र मोहनीय में। शरीर नाम कर्म का संक्रमण जाति / गति आदि नाम कर्म में नहीं हो सकता। इसमें पुण्य प्रकृति को पाप में तथा पाप प्रकृति को पुण्य में बदला जा सकता है। जैसे
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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