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3. उदय :- कर्मों के फल देने की अवस्था का नाम उदय है अर्थात् अपने उदय स्थिति पूरी होने पर कर्म जब फल प्रदान करते हैं उसे उदय अवस्था कहते है।
कर्म की पहली अवस्था बंध है। बंध की काल मर्यादा पूर्ण होने पर जब तक
उस कर्म का अनुदय रहता है वह सत्ता है और कर्म का समय पर फल देने के फल
लिए तत्पर होना उदय है। जैसे बीज बोते ही वह फल देना प्रारंभ नहीं करता। बीज कुछ दिन तक जमीन में पड़ा रहता है फिर अंकुरित व पल्लवित होकर वृक्ष
बनता है, तदन्तर उसके फल प्राप्त होते है। उसी प्रकार कर्म बीज का बंध होते ही फल नहीं मिलता। वह सत्ता में रहकर परिपक्व होता है और नियत समय आने पर उदय में आता है तथा शुभाशुभ कार्य का यथायोग्य सुख - दुःख रुप फल देना प्रारंभ करता है। इसके दो भेद है :- 1. प्रदेशोदय 2. विपाकोदय
1. प्रदेशोदय :- इस अवस्था में कर्म द्वारा दिये जानेवाले फल या रस का स्पष्ट अनुभव नहीं होता। जैसे ऑपरेशन करते समय रोगी को क्लोरोफॉर्म सुंघाकर अचेतावस्था में जब क्रिया की जाती
है तो रोगी को उस वेदना की अनुभूति नहीं होती वैसे ही प्रदेशोदय (1) प्रदेशोदय में फल की
(2) विपाकोदय अनुभूति नहीं
(1) द्रव्य विपाक होती। 2. विपाकोदय :- कर्म जन्य वेदन का स्पष्ट अनुभव होना विपाकोदय है।
उदय
KAANEMAIN
* कर्म की उदय अवस्था में क्या करें ?
पूर्वबद्ध कर्म जब उदय में आते है तब वे अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य के मुताबिक निमित्त की रचना कर देते है। कर्म का कार्य सिर्फ निमित्त की योजना कर देना है शेष कर्तव्य आत्मा के अधीन है। कर्म अपने स्वभाव के अनुसार, तीव्रता- मंदता के प्रमाणानुसार अवसर प्रस्तुत करने के पश्चात् स्वयं सत्वहीन बन जाते है। उस प्राप्त निमित्त या प्रसंग का लाभ लेना या न लेना अपने पर निर्भर है। व्यक्ति उसमें जुडे या न जुडे यह उसकी इच्छा पर निर्भर है।
यदि आत्मा स्वभाव में रहे और निमित्त से न जुडे तो उस कर्म की उदयमान अवस्था उसका कुछ नहीं कर सकती। कर्म और आत्मा का संबंध निमित्त नैमितिक (उपादान) होने के कारण जिस काल में वह निमित्त उदय में आता है तब व्यक्ति अपना स्वरूप भूलकर विभाव परिणाम को अपना लेता है और निर्बल आत्मा निमित्त की शक्ति के आगे पराभत होकर पर भाव में चली जाती है। ज्ञानी तथा अज्ञानी के कर्म भोगने की क्रिया में यही अंतर है। अज्ञानी कर्म विभाव परिणाम से भोगते है एवं ज्ञानी समता भाव से भोगते है,
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