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________________ है उसी प्रकार स्थिरा दृष्टि में प्राप्त बोध क्षय नहीं होता और साधक का बोध सद्अभ्यास, सचिंतन आदि के द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलत्तर होता जाता है। 6. कान्ता दृष्टि : इस दृष्टि की उपमा तारे के प्रभा से दी गई है। जिस प्रकार तारे की प्रभा आकाश में स्वाभाविक रुप से होती है, अखण्डित होती है, उसी प्रकार कान्ता की दृष्टि का बोध-उद्योत, अविचल, अखण्डित और प्रगाढ़ सहज रुप से प्रकाशित रहता है। इस दृष्टि में साधक को धारणा नामक योग के संयोग से सुस्थिर अवस्था होती है, परोपकार एवं । सद्विचारों से उसका हृदय प्लावित हो जाता है तथा उसके दोष अर्थात् चित्त की विकलता नष्ट हो जाती है। धार्मिक विचारों के सदाचारों के सम्यक् परिपालन से साधक का स्वभाव क्षमाशील बन जाता है, वह जहाँ भी जाता है, वहाँ सभी प्राणियों का प्रिय बन जाता है। इस प्रकार साधक को शांत, धीर एवं परमानंद की अनभति होने लगती है. सम्यक ज्ञान की प्राप्ति से उसे स्व और पर वस्त का बोध हो जाता है तथा ईा. क्रोध आदि दोषों से सर्वथा दूर हो जाता है। 7. प्रभा दृष्टि: इस दृष्टि की उपमा सूर्य के प्रकाश से दी गई है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से सारा विश्व प्रकाशित होता है तथा उसका प्रकाश अत्यंत तीव्र ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है, उसी प्रकार प्रभा दृष्टि का बोधप्रकाश भी अत्यंत तीव्र, ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है तथा साधक को समस्त पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है। सूर्य की भांति अत्यंत सुस्पष्ट दर्शन की प्राप्ति होती है। किसी भी प्रकार का रोग जन्य संक्लेश नहीं होता। इस अवस्था में साधक को इतना आत्म विश्वास हो जाता है कि वह कषायों में लिप्त होते हुए भी अलिप्त सा रहता है, रोगादि क्लेशों से पीड़ित होने पर भी विचलित नहीं होता। इच्छाओं का नाश हो जाता है और साधक सदाचार का पालन करते हुए मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होता है। ज्ञान की साक्षात् उपलब्धि उसे हो जाती है। आत्म साधना की यह बहुत ही ऊंची स्थिति होती है। ऐसी उत्तम अविचल, ध्यानावस्था से आत्मा में अपरिमिति सुख का स्त्रोत फूट पड़ता है। 8. परा दृष्टि :___ यह अन्तिम दृष्टि है, जिसकी उपमा चन्द्रमा की प्रभा से दी गई है। जो शीतल, सौम्य तथा शांत होता है और सबके लिए आनंद, आहलाद् और उल्लासप्रद होता है। इसमें सभी प्रकार के मन-व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं और आत्मा केवल आत्मा के रुप में ही देखती है, इस दशा में बोध और सुख की निर्विकल्पता में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिपदी एक मात्र अभेद आत्म स्वरुप में परिणत हो जाती है। यह अवस्था आसक्तिहीन और दोष रहित होती है। इस अवस्था वाले योगी को सांसारिक वस्तुओं के प्रति न मोह होता है और न आसक्ति और न उसमें किसी भी प्रकार का दोष रह जाता है। इस तरह आचार और अतिचार से वर्जित होने के कारण साधक योगी क्षपक श्रेणी द्वारा आत्म विकास करता है। ForpoettePEC
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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