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________________ ध्यान के चार भेद: ध्यान आर्तध्यान रौद्रध्यान धर्मध्यान शुक्लध्यान आर्तध्यान आर्तध्यान अर्थात् दुःख में अथवा दुःख के निमित्त से होने वाला दीनता, शोक, खेद, आदि से भरा ध्यान ! जब जीव आधि, व्याधि अथवा उपाधि स्वरूप किसी दुःखद स्थिति में पड़ता है तब उसे मेरा कष्ट शीघ्र दूर हो, मुझे सुख प्राप्त हों, ऐसी जो सतत् चिन्ता होती है अपने दुःख के प्रति अत्यंत संक्लेश एवं घृणा होती है, वहीं आर्त्तध्यान है। यह ध्यान सांसारिक दुःख के कारण उत्पन्न होता है और पुनः दुःख का अनुबंध कराता ___आर्तध्यान के चार प्रकार है :___ 1. अनिष्ट संयोग आर्तध्यान : अप्रिय व्यक्ति, वस्तु आदि के प्राप्त होने पर या प्राप्ति की संभावना पर, भय से उसके वियोग हेतु सतत् चिन्तित रहना। 2. इष्ट वियोग आर्तध्यान : प्रिय वस्तु का वियोग हो जाने पर उसकी पुनः प्राप्ति के लिए चिन्ता करना। ऐश्वर्य, स्त्री, परिवार, मित्र, भोग आदि की सामग्री का नाश होने पर या नाश की संभावना होने पर व्यक्ति को जो शोक, चिंता या खेद होता है वह इष्ट वियोग जनित आर्तध्यान कहलाता है। 3. रोग चिन्ता आर्तध्यान : शारीरिक या मानसिक रोग की पीड़ा होने पर उसके निवारण की व्याकुलतापूर्वक चिन्ता करना रोग चिन्ता आर्तध्यान है। ____4. निदान आर्तध्यान : जो वस्तु प्राप्त नहीं है उसकी प्राप्ति की इच्छा करना। कोई भी पुण्य कार्य अथवा धार्मिक अनष्ठान करते समय या करने के पश्चात मोह. अज्ञान एवं मिथ्यात्व के कारण स्वर्गीय सख. राज्य. सम्पत्ति, विषय-सुख तथा पूजा प्रतिष्ठा की कामना करना, ये सब मुझे प्राप्त हो ऐसा दृढ़ संकल्प करना निदान रूप आर्त्तध्यान है। इस प्रकार केवल अपने ही सुख-दुख की निरन्तर चिन्ता करते रहना अथवा विषय-सुख का प्रगाढ़ राग एवं दुःख का तीव्र संक्लेश करना आर्तध्यान है। आर्तध्यान को पहचानने के लिए स्थानांग सूत्र में चार लक्षण बताये है : 1. क्रन्दनता : जोर-जोर से रोना चिल्लाना। 2. शोचनता : दीनता प्रकट करते हुए शोक करना। 3. तेपनता : आंसू बहाना। 4. परिवेदनता : करुणा-जनक विलाप करना। 22 P ersia
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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