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________________ A ध्यान ध्यान सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही मोक्ष या मुक्ति का मार्ग है । उस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति का एक कारण ध्यान है । अतएव मुक्ति प्राप्त करने के लिए ध्यान का अभ्यास आवश्यक है । ध्यान का अर्थ : ध्यान शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक विषय या बिन्दु पर केन्द्रित होना अर्थात् किसी एक विषय में अन्तःकरण की विचारधारा को स्थापित करना ध्यान है। सामान्यतया मन की विचारधारा क्षण-क्षण में बदलती रहती है। वह प्रतिक्षण अन्य अन्य दिशाओं में बहती हुई हवा में स्थिर दीपशिखा की भाँति अस्थिर होती है। ऐसी चिन्तनधारा को प्रयत्नपूर्वक अन्य विषयों से हटाकर एक ही विषय में स्थिर रखना ध्यान है। ध्यान के योग्य स्थान ध्यान के लिए पवित्र एवं शांत स्थान होना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि योग-साधना-मार्ग में नए प्रविष्ट साधक कोलाहल युक्त, जन समुदाय युक्त तथा अन्य सामग्री से भरे स्थान में ध्यान में स्थिर नहीं रह सकते __ आचार्य शुभचन्द्रजी लिखते है कि जिस स्थान में निम्न स्वभाव वाले लोग रहते हो, जुआरियों, शराबियों और व्यभिचारियों से युक्त हो, जहाँ का वातावरण अशान्त हो, गीत वादन आदि से स्वर गुंज रहे हों, जहाँ जीवोत्पत्ति ज्यादा हो आदि स्थान ध्यान के योग्य नहीं है। संयमी साधक को जिनालय, उपाश्रय, स्थानक, समुद्र तट, नदी तट अथवा सरोवर के तट, पर्वत शिखर, गुफा आदि स्थान को ही ध्यान के क्षेत्र रूप में चुनना चाहिए। ध्यान के लिए पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर बैठना चाहिए। ध्यान के आसन ध्यान के लिए योग्य आसन भी वही माना जाता है जिस आसन में बैठने से ध्यान में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो। शरीर और मन पर किसी भी प्रकार का तनाव नहीं पड़ता हो और साधक अधिक समय तक सुखपूर्वक बैठ सके। चाहे कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े रहकर ध्यान करो अथवा पद्मासन या सुखासन आदि में बैठकर ध्यान करो। इतना ही नहीं समाधिमरण या रोग आदि के कारण शारीरिक अशक्ति की स्थिति में लेटे-लेटे भी ध्यान किया जा सकता है। इसके लिए नियम इतना ही है कि जो आसन बांधा हो उसमें देह का जमाये रखना चाहिए। बार-बार शरीर को हिलाना-डुलाना नहीं चाहिए। साधक के लिए जरूरी है कि वह अभ्यास से पद्मासन आदि आसन सिद्ध कर लें ताकि उन आसनों का भी पूरा फायदा मिलें। 5-20
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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