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ऋषि ने राजा को हिंसा-पाप आदि के कटु परिणामों का बोध दिया और क्रोध से वासित उनके मन को उपशान्त किया। द्राविड राजा अपने दुष्कृत्यों पर लज्जित हुआ और राज्य पाठ सब छोड़कर दीक्षा ग्र करने का निर्णय लिया । अपने भाई के द्वारा क्षमायाचना का संदेश सुनकर राजा वारिखिल्ल ने भी अपना राजपाट त्याग कर तपस्वी दीक्षा ले ली है। इन दोनों राजाओं की 5-5 करोड़ की सेना ने भी अपने राजा से प्रेरित हो दीक्षा ली।
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सुवलगु ऋषि के पास द्राविड़ वारिखिल्ल और 10 करोड़ सैनिकों ने लाखों वर्ष तापसी दीक्षा पाली । अचानक एकबार आकाश मार्ग से पधारे नमि - विनमि के शिष्य दो विद्याधर मुनियों से प्रेरित हो ये तापस शत्रुंजय गिरिराज की यात्रा के लिए निकल पड़े। इन मुनिवरों से प्रभावित इन सारे तापसों ने भगवती जैन दीक्षा ग्रहण की और गिरिराज का पावन दर्शन - स्पर्शन करके एक मास का अनशन करके मोक्ष प्राप्त किया । इस प्रकार कार्तिक पूर्णिमा के पावन दिन दस करोड़ साधुओं के साथ द्राविड और वारिखिल्ल ने सिद्ध गति पाई ।
सब तीर्थों का राजा है, सिद्धाचल तीर्थ । पंद्रह कर्मभूमि, क्षेत्रों में तीर्थराज की बराबरी करने वाला कोई तीर्थ नहीं है। भूतकाल में इस तीर्थराज पर अनंत जीवों ने मोक्ष प्राप्त किया है। वर्तमान काल में भी अनेक यहां प्रतिबोधित होते है । भविष्य काल में भी अनंत जीव यहां सिद्ध होंगे।
जो आराधक आत्मा भावपूर्वक तप-जप सहित श्री सिद्धाचलजी की यात्रा करता है, वह अवश्य कर्मों के समूह का संक्षय कर के अजर-अमर स्थान को प्राप्त करता है।
श्री शत्रुंजय महात्म्य में कहा है कि, कार्तिक पूर्णिमा के दिन उपवास करके भाव और यत्ना पूर्वक जो आराधक इस तीर्थ की यात्रा करता है वह सब पाप मलों का नाश करके सिद्ध मुक्त बनता है।
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