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________________ संयम धर्म को स्वीकारों और कर्मक्षय कर केवलज्ञान पाकर जिनशासन की स्थापना करो। हे प्रभु ! वर्षीदान देकर जगत का द्रव्य दारिद्र दूर करके जैसे ही आप संयम के मार्ग पर बढ़ते हैं, तब इंद्रादिक देव दीक्षा कल्याणक के लिए दौड आते हैं। और विशाल पालखी की रचना करके स्वयंकंधों पर उठाते हैं। हे प्रभु ! आप सर्व अलंकारों का त्याग कर पंचमुष्ठि लोच करके, सर्वविरति धर्म को धारण करते हैं। तब “नमो सिद्धाणं" पद का उच्चारण करते ही, हे तीन ज्ञान के स्वामी, आप चौथे मन पर्यव ज्ञान के स्वामी बन जाते हैं। तथा श्रमण जीवन स्वीकार करके घोर उपसर्गों व परिषहों को सहन करके अंत में स्वस्वरुप रमणता पूर्वक वीतरागी दशा की पूर्णता होते ही केवलज्ञान - दर्शन प्राप्त करते हैं। 2. पदस्थ अवस्था :- समवसरण में विराजमान अष्ट प्रतिहार्यों से युक्त परमात्मा को देखकर प्रभु की पदस्थ अवस्था का चिंतन इस प्रकार करना चाहिए। हे परम तारक ! आपको केवलज्ञान प्राप्त होते ही इंद्रादि करोड़ों देव सहित दौडे - दौडे चले आते हैं। रजत, सुवर्ण, व मणिरत्नों से युक्त तीन गढ वाले समवसरण की रचना करते हैं। मध्य में अशोकवृक्ष की स्थापना करते हैं। चारों ओर तीन - तीन छत्र होते हैं। देव दुंदुभी नाद करते हैं। पुष्प वृष्टि जंघा प्रमाण करते हैं , चारों दिशाओं में सिंहासन की स्थापना करते हैं। नव निर्मित सुवर्णकमल पर चलते हुए आप समवसरण में पधारते हैं। वहाँ पूर्वदिशा में विराजते हैं और शेष दिशा से आपके अतिशय से ही देव आपके सदृश शेष तीन बिंबों (प्रतिमा) की स्थापना करते हैं। आप मालकोष राग में देशना देते हैं और देवताओं के द्वारा बांसुरियों से पार्श्वसंगीत बजाया जाता है। ___ बीज बुद्धि के स्वामी माने जानेवाले गणधर भगवंतों की आत्माए इस देशना से प्रतिबोध पाकर प्रवज्या ग्रहण करते हैं। और वे गणधर त्रिपदी प्राप्त करके द्वादशांगी की रचना करते हैं। इन्द्र महाराजा हाथ में श्रेष्ठतम सुगन्धित द्रव्य का थाल लेकर खडे होते हैं और तीर्थंकर अपनी मुट्ठि भरकर वासक्षेप लेकर गणधरों के मस्तक पर वासक्षेप कर चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं। ___3. रुपातीत अवस्था :- प्रभु की ध्यान मुद्रा कायोत्सर्ग मुद्रा को देखकर रुपातीतवस्था का चिंतन इस तरह करना चाहिए कि हे परमात्मा ! स्वभाव में रमण करते हए, जगत पर परम उपकार करते हुए जब आपके आयुष्य कर्म क्षीण होने लगते हैं, तब आप शैलेषीकरण कर सभी कर्मों को समाप्त कर शाश्वत सुखप्रदाता KAR-722 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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