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________________ * देवदर्शन पूजन विधि : कोई भी कार्य विधिवत् करने से सफलता मिलती है। देव - दर्शन पूजन भी यदि विधिवत् किया जाय तो आत्मा विशुद्धि होती है शुभ भावना के साथ प्रभु दर्शन के लिए जाते समय हमें पाँच अभिगमों का अवश्य पालन करना चाहिए। * पाँच अभिगम :- अभिगम एक प्रकार का विनय है 1. सचित का त्याग :- प्रभु भक्ति में उपयोग में न आये ऐसी खाने - पीने की सचित वस्तुओं का त्याग करना। 2. अचित का अत्याग :- प्रभु भक्ति में उपयोगी वस्तुओं का त्याग नहीं करना। 3. उत्तरासन :- पुरुष को जिन मंदिर में प्रवेश के पूर्व उत्तरासन चाहिए अर्थात् खेस (दुपट्टा) द्वारा अपने शरीर को अलंकृत करना चाहिए। खेस के किनारे सिलाई या तुरपाई की हुई नहीं होनी चाहिए और रस्सी या गुच्छा होना चाहिए। पूजा के खेस द्वारा पसीना पोंछना, नाक साफ करना आदि क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए। यह अभिगम बहनों के लिए नहीं है, दुपट्टे के बदले उन्हें शालीन व मर्यादित वस्त्रों को पहनना चाहिए, मस्तक आदि को समुचित रुप से ढंककर जाना चाहिए। 4. अंजलि :- जैसे ही देवाधिदेव की प्रशान्त मुखाकृति दिखे, वैसे ही दोनों हाथ जोडकर, मस्तक झुकाकर नमो जिणाणं कहना चाहिए। 5. प्राणिधान :- अर्थात् मन की एकाग्रता। * जिनालय में सात प्रकार की शुद्धि * 1. अंग शुद्धि 2. वस्त्र शुद्धि 3. मन शुद्धि 4. भूमि शुद्धि 5. पूजोपकरण शुद्धि 6. द्रव्य शुद्धि 7. विधि शुद्धि 1. अंगशुद्धि :- मानवीय काया मलमूत्र, पसीना, थूक, लास, बलगम और धूल आदि से सदा मलिन होती रहती है। अतः जयणा पूर्वक स्नान विधि से शरीर शुद्धि करने के बाद ही परमात्मा का स्पर्श करना ही अंगशुद्धि है। (यदि शरीर में घावादि हो उसमें सतत मवाद प्रवाहित हो रहा हो तो जिनपूजा नहीं करनी चाहिए।) 2. वस्त्रशुद्धि :- वस्त्र और विचारों का प्रगाढ संबंध है। इसलिए कहा जाता है, मलिन वेश भी मलिनता 62 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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