SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5. साहुवयणेणं :- उग्घाडा पोरसी - इस प्रकार के साधु के कथन के आधार पर समय आने से पूर्व ही पोरसी पार ले तो व्रत भंग नहीं होता । 6. सव्व समाहिवत्तियागारेणं :- पच्चक्खाण का समय पूरा होने के पूर्व ही तीव्र रोगादि के कारण अस्थिर चित्त तथा आर्तरौद्र ध्यान होने से उस रोग को शांत करने हेतु औषधी आदि ग्रहण करने से व्रत टूटता नहीं । 7. महत्तरागारेणं :- विशेष निर्जरा आदि खास कारण गुरु की आज्ञा पाकर निश्चय किये हुए समय से पहले ही पच्चक्खाण पार लेने से व्रत भंग नहीं होता। जैसे कोई साधु बीमार हो अथवा उस पर या संघ पर कोई संकट आ गया हो, अथवा मंदिर या संघ आदि का कोई खास काम हो जो दूसरे से या दूसरे समय में नहीं हो सकता, इत्यादि महत्वपूर्ण कारणों को लेकर समय पूरा होने से पहले पच्चक्खाण पारा जा सकता है। यह आगार नवकारसी, पोरसी आदि में नहीं बताया गया है। 8. सागारी आगारेणं ':- भगवान की आज्ञा है कि साधु एकांत स्थान अर्थात् जहाँ कोई गृहस्थ न देखता हो वहां भोजन करें। यदि एकासणादिक पच्चक्खाण करके भोजन करने के लिए बैठे हुए साधु के पास कोई गृहस्थ आ जाए तो साधु महराज उस स्थान से स्थानान्तर होवे तो पच्चक्खाण भंग नहीं होता तथा गृहस्थों के लिए इस बात का उल्लेख है कि वे यदि एकासणादि के लिए आहार करने बैठे हो और सामने पुरुष / स्त्री की नजर ठीक न लगती हो तो वे स्थान बदले तो व्रत भंग नहीं होता है। 9. आउट्ठणपसारेणं :- भोजन करते समय सर्प के आने से, अग्नि के प्रकोप से या अंग सुन्न पड जाने से हाथ, पैरों आदि अंगों को फैलाना या सिकोडा जाय तो नियम भंग नहीं होता है। 10. गुरु अब्भुट्ठाणेणं :- एकासनादि में भोजन करते समय यदि गुरु महाराज पधारें तो उनके विनय के लिए आसन पर खडे हो जाने पर भी इस आगार के कारण पच्चक्खाण भंग नहीं होता है। 11. परिट्ठावणियागारेणं :- साधु की गोचरी में आहार, मात्रा से अधिक आने से बच गया हो, दूसरे दिन के लिए उसे रखना तो कल्पनीय नहीं है, ऐसी दशा में उसे परठाने (डालने) के सिवाय कोई चारा नहीं तो उस समय गुरु आज्ञा से तपस्वी साधु आहार ग्रहण करे तो नियम भंग नहीं होता है। 12. लेवालेवेणं :- भोजन करने के थाल प्रमुखादि भोजन में घी दूध आदि विगय द्रव्य का अंश लगा हुआ देखकर, हाथादि से साफ कर लेने पर भी जिस बर्तन में चिकनाहट का कुछ अंश रह जाए, उसमें यदि आयंबिलादि व्रतवाला भोजन कर लेवें तो व्रत भंग नहीं होता है। 13. उक्खितविवेगेणं :- आयंबिलादि पच्चक्खाण में न खाने योग्य जो विगय द्रव्य है उसका स्पर्श भूल यदि खाने योग्य वस्तुओं से हो जाये तो उनके खाने में साधु को दोष नहीं । 14. गिहत्थसंसिट्टेणं :- आहार या घी तेल आदि से लगी हुई, कडछी, चम्मच आदि को साफ कर लेने पर भी चिकनाहट या गंध का थोडा अंश उसमें लगा रहे। उस चम्मच से कदाचित् आयंबिलादि को खाना परोसा गया हो तो नियम भंग नहीं होता है। 15. पडुच्चमक्खिएणं :- भोजन बनाते समय जिन चीजों पर भूल कर घी - तेल आदि की उंगली लग जाय या घी से चुपडे हुए फूलकों आदि का स्पर्श हो जाए, उन वस्तुओं को आयंबिलादि पच्चक्खाण वाला भोजन कर ले तो व्रत भंग नहीं होता। Jain Education International 59 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy