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अतिचारों की आलोचना की जाती है, पर पर्व दिनों में विशेष रुप से जागरुक रहकर जीवन का निरीक्षण, परीक्षण और पाप का प्रक्षालन किया जाता है।
पर्व के दिनों में काल बल बडा ही प्रभावित होता है। अतः उन दिनों में किये गये प्रतिक्रमण से शेष बचे हुए गहरे पापों का भी विशेष रुप से प्रक्षालन हो जाता है।
प्रतिक्रमण किसका :- स्थानांग सूत्र में छः प्रकार के प्रतिक्रमण का निर्देश किया है। 1. उच्चार प्रतिक्रमण :- मल आदि परठने के समय आने जाने के मार्ग में गमनागमन संबंधी जो दोष लगते हैं, उनका प्रतिक्रमण। 2. प्रश्रवण प्रतिक्रमण :- मूत्र को परठने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण करना। 3. इत्वर प्रतिक्रमण :- दैवसिक, रात्रिक आदि स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना। 4. यावत्कथिक प्रतिक्रमण :- संपूर्ण जीवन के लिए पाप से निवृत्त होने का जो संकल्प किया जाता है। वह यावत्कथिक प्रतिक्रमण है। 5. यत्किंचित मिथ्या प्रतिक्रमण :- सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी से किसी भी प्रकार असंयम रुप आचरण हो जाने पर उसी समय उस भूल को स्वीकार कर लेना और उसके प्रति पश्चाताप करना। 6. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण :- विकार वासना रुप कुस्वप्न देखने पर उसके संबंध में पश्चाताप करना।
ये विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से संबंधित हैं, किंतु गृहस्थ के लिए राई, दैवसिक आदि प्रतिक्रमण करने का विधान है। वंदितु सूत्र की गाथा में कहा गया है।
पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं,
__ असद्दहणे अ तहा विवरीअ परुवणाए अ || प्रतिक्रमण पापों का करना है, और पाप के चार स्थान है 1. शास्त्र में जिनका निषेध किया है वैसे हिंसा, झूठ आदि पापों के अठारह स्थान है, उनका सेवन करना अतिक्रमण (पाप) है। 2. अपनी अपनी मर्यादा के अनुसार जो कार्य करने योग्य हो वह न करना अतिक्रमण है। 3. तत्वों के प्रति अश्रद्धा होना अतिक्रमण है। 4. सर्वज्ञ के वचनों के विपरित प्ररुपणा करना अतिक्रमण है।
इन चार प्रकार के पापों का प्रतिक्रमण करना है। भरत और ऐरावत क्षेत्र के प्रथम व अंतिम तीर्थंकरों के साधु - साध्वी, श्रावक - श्राविका को दोष लगे अथवा न लगे, दोनों समय प्रतिक्रमण करना अनिवार्य होता है। बीच में 22 तीर्थंकरों के तथा महाविदेह क्षेत्र के साधु - साध्वी, श्रावक - श्राविका को दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण किया जाता है, अन्यथा नहीं।
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