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प्रतिक्रमण:
प्रतिक्रमण जैन परंपरा का एक विशिष्ट शब्द है। प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है वापस लौटना। हम अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर, अपनी स्वभाव दशा से निकलकर विभाव दशामें चले गये, अतः पुनः स्वभाव में लौट आना प्रतिक्रमण है। जो पाप मन, वचन और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से करवाये जोते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापों की निवृत्ति हेतु किये गए पापों की आलोचना करना, निंदा करना प्रतिक्रमण है। कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य ने लिखा है शुभ योगों में से अशुभ योगों में गये हुए अपने आप को पुनः शुभ योगों में लौट आना प्रतिक्रमण है। व्रतों में लगे अतिचारों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण की आवश्यकता है। प्रतिदिन यथासमय यह चिंतन करना कि आज आत्मा व्रत से अव्रत में कितनी गयी ? कषाय की ज्वाला कितनी बार प्रज्जवलित हुई ? और हुई तो निमित्त क्या बना ? क्रोध के आवेश में जो शब्द कहे, वे उचित थे या अनुचित, यदि मैं मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग में गया हूँ, तो मुझे पुनः सम्यक्त्व, व्रत, अकषाय, अप्रमाद और शुभ योग में आना चाहिए। इस प्रकार से चिंतन मनन करके इसकी शुद्धि करना ही प्रतिक्रमण
है।
आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि, आदि प्रभृति ग्रन्थों में प्रतिक्रमण के संबंध में बहुत विस्तार के साथ विचार चर्चाएं की गई है। उन्होंने प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्द भी दिए है, जो प्रतिक्रमण के विभिन्न अर्थों को व्यक्त करते हैं। यद्यपि आठों का भाव एक ही है किंतु ये शब्द प्रतिक्रमण के संपूर्ण अर्थ को समझने में सहायक है । वे इस प्रकार हैं
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(2) प्रतिक्रमण
1. प्रतिक्रमण - इस शब्द में “प्रति" उपसर्ग है और "क्रम" धातु है। प्रति का तात्पर्य है - प्रतिकूल और क्रम का तात्पर्य है, पदनिक्षेप | जिनप्रवृत्तियों से साधक सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रुप स्वस्थान से हटकर, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम रुप परस्थान में चला गया हों उसका पुनः अपने आप में लौट
आना ।
2. प्रतिचरण :- हिंसा, असत्य आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर होना । 3. परिहरण • सब प्रकार के अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों का त्याग करना ।
4. वारण :- जिनशासन की आज्ञा के विरुद्ध कार्य नहीं करना ।
5. निवृत्ति :- अशुभ भावों को रोकना ।
6. निंदा :- गुरुजन, वरिष्टजन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा की साक्षी से पूर्व में जो भी पापयुक्त प्रवृत्ति हुई हो, उन अशुभ आचरणों को बुरा समझना तथा उसके लिए पश्चाताप करना ।
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