SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हेमचन्द्राचार्य से प्रतिबोधित कुमारपाल राजा ने तारंगाजी, खंभात, शत्रुजय आदि नगरों में 1444 नए जिन चैत्य बनवाकर उनके शिखरों पर सोने के दण्ड व कलश स्थापित किए थे। पाटण में भी अपने पिताश्री त्रिभुवनपाल की याद में त्रिभुवन विहार नामक जिनालय स्वद्रव्य से बनाया था। 16,000 जिनालयों का जिर्णोद्धार कराया। 7 बडे छःरी पालित संघ (बडी तीर्थयात्रा) निकाली जिसमें से पहली तीर्थयात्रा में नौ लाख के नौ रत्नों से प्रभु के नौ अंगों की पूजा की। अठानवें लाख का धन उचित दान में व्यय किया। इक्कीस ज्ञान भंडार बनवाये। अपुत्रकों का बहत्तर लाख धन छोड दिया। सोने की स्याही से आगमग्रन्थ लिखवाये। छत्तीस हजार श्लोक प्रमाण त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र लिखवाकर उसे हाथी पर रखकर पूरे पाटण में जूलूस निकाला। सात सौ लहियों से (लेखनीकारों से) गुरुदेव के ग्रन्थ लिखवाकर ग्रन्थ ज्ञान भंडार में रखवाये। साधर्मिकों के लिए चौदह करोड रुपये खर्चे। श्री हेमचन्द्राचार्य ने कुमारपाल महाराजा को शत्रुजय तीर्थ की यात्रा का फल बताया। कुमारपाल ने प्रसन्न होकर यात्रा करने की हाँ कही। बडे संघ के साथ पैदल यात्रा जाने के लिए तेजी से तैयारियाँ होने लगी मगर न सोचा हुआ एक विघ्न आया। गुप्तचरों ने आकर राजा कुमारपाल को कहा :- राजा कर्ण विशाल सैन्य के साथ गुजरात की तरफ चला आ रहा है। तीन दिन में वह पाटण की सीमा पर पहुँचेगा। राजा को कर्ण का कोई भय न था। ऐसे कई कर्ण आवे तो भी मुकाबला कर सके ऐसे थे, परंतु उसे चिंता हुई तीर्थयात्रा की। कुमारपाल महाराजा यात्रा पर निकल जाय तो उनकी अनुपस्थिति का लाभ लेने के लिए राजा कर्ण ने आक्रमण की योजना बनायी थी। कुमारपाल महाराजा ने गुरुदेव का ही मार्गदर्शन लेने का निर्णय लिया, क्योंकि तीर्थयात्रा करनी ही थी। और तीर्थयात्रा के लिए निकले तो राजा कर्ण गुजरात जीत ले। वाग्भट्ट मंत्री के साथ कुमारपाल राजा ने उपाश्रय पर आकर इस बारे में सलाह माँगी। आचार्य ने थोडी देर आँखे बंद करके ध्यान धरा और कुमारपाल राजा को कहा, चिंता छोडकर तीर्थयात्रा के लिए समयानुसार निकलने की तैयारी करो। कर्ण की चिंता छोड दो। राजा और मंत्री महल में तो आये परंतु समझ न सके कि किस प्रकार आचार्यश्री यह प्रश्न हल करेंगे। कुमारपाल राजा सोचते रहे। आचार्यश्री की आज्ञानुसार धर्मध्यान में मग्न थे। सुबह होते ही महल में उन्हें अपने गुप्तचर ने आकर समाचार दिया कि राजा कर्णदेव तेजी से पाटण की तरफ बढ़ रहा था। वह हाथी पर 2-123 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy