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हरिण का जीव मर कर हथिनी की कुक्षि में पहुंच गया।
राजा के रसोईये ने उसी हरिण का मांस पकाया। राजा और रानी आनंद से प्रशंसा करते हुए मांस खा रहे थे। इतने में दो मुनि वहां से गुजरे। एक ज्ञानी मुनिश्री ने दूसरे मुनिराजश्री से कहा कि कर्म की कैसी विचित्रता | जिस सुनंदा के निमित्त से बेचारा रूपसेन केवल आंख और मन की कल्पना से कर्म बांधकर 7-7 भव
से भयंकर वेदना का शिकार हुआ। वही सुनंदा उसका मांस खा रही है। इस प्रकार मंद स्वर से कहकर सिर हिलाया। यह देखकर राजा-रानी ने मुनिश्री से सिर हिलाने का कारण पूछा। तब मुनि ने स्पष्ट करते हुए कहा कि जिस रूपसेन के पर सुनंदा का स्नेह था, उसी जीव का मांस सुनंदा खा रही है। अतः हमने आश्चर्य से सिर हिलाया। यह सुन कर सुनंदा को खूब आघात लगा। ओह गुरुदेव! मेरे प्रति आंख और मन के पाप करने वाले की 7-7 भव तक ऐसी दुर्दशा हुई है, तो मेरा क्या होगा? मैं तो उससे भी आगे बढ़कर कायिक पाप-पंक से मलिन बनी हई हं। मुनिश्री ने कहा कि किये हए अपराधों की आलोचना करके चारित्र लेने से आत्मा शुद्ध हो जाती है। एवं मोक्ष प्राप्त कर सकती है। इत्यादि तात्त्विक उपदेश सुनकर सुनंदा ने दीक्षा ग्रहण कर ली। आलोचना प्रायश्चित लेकर संयम का पालन करते हए साध्वी सुनंदा ने अवधिज्ञान प्राप्त किया।
सुनंदा साध्वी एक बार हाथी को प्रतिबोध देने के लिए जंगल में जा रही थी। तब गांव के लोगों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, परंतु साध्वीजी किसी की सुने बिना जंगल में गई। मदोन्मत्त हाथी की दृष्टि सुनंदा पर पड़ते ही वह चित्रवत् स्थिर हो गया। तब साध्वीजी ने कहा - "बुज्झ-बुज्झ रूपसेण'' अरे रूपसेन! बोध प्राप्त कर, बोध प्राप्त कर। मेरे प्रति स्नेह रखने से तू इतने दुःखों का शिकार होने पर भी मेरे प्रति स्नेह क्यों नहीं छोड़ता? इस प्रकार के वचन सुनने से हाथी को जाति स्मरण ज्ञान हुआ। उसने पूर्व के 7 भवों की दुःखमय श्रृंखला देखी। वह खूब पश्चाताप करने लगा। अरर! मैंने यह क्या कर दिया? अज्ञान दशावश बनकर व मोह के अधीन होकर आर्तध्यान में मर-मरकर दुर्गति में गया। अब मुझे दुर्गति नहीं देखनी है। इस प्रकार विचार करते हुए हाथी मन में जागृत हुआ। साध्वीजी ने राजा को कहा कि अब यह हाथी तुम्हारा साधर्मिक है। इसका ध्यान रखना। हाथी बेले-तेले वगैरह तप करके देवलोक में गया। __इस कथा से हम समझ सकते हैं कि मन और दृष्टि का पाप कितना भयंकर है? उसकी आलोचना न ली, तो रूपसेन के 7-7 भव बिगड़ गए। आलोचना का कैसा अद्भुत प्रभाव है कि साध्वीजी सुनंदा शल्यरहित शुद्ध संयम पालन कर केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गईं। अतः इस बात को आत्मसात् कर आलोचना लेकर शुद्ध बनना चाहिये।
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