________________
आपको अवश्य ही उसका मर्म समझायेंगे। दूसरे दिन आचार्य जिनदत्तसूरि पधारे और उन्होंने हरिभद्र को इस गाथा का मर्म समझाया। उसी समय हरिभद्र उनके शिष्य बन गये।
दीक्षा काल में उन्होंने जैन आगमों का अभ्यास किया । ज्यों-ज्यों अभ्यास बढता गया, त्यों-त्यों साधु श्री हरिभद्र के अंतर में दिव्यदृष्टि का तेज प्रकट होने लगा। संसार मात्र तारक के रूप में जैन आगमों की उपकारकता उन्हें समझ में आ गई।
समय बीतने के पश्चात् पंडित हरिभद्र आचार्य हरिभद्रसूरि बन गये। वे स्वयं पर अवर्णनीय उपकार करनेवाले तथा ज्ञान आराधना की नई क्षितिजें बतानेवाली साध्वी याकिनी महत्तरा को अपनी माता मानते थे। अब कलिकालसर्वज्ञ जैसे विशेषणों से पहचाना जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। जैसे जैसे जैन शास्त्रों का ज्ञान बढता गया, वैसे वैसे समय व्यतीत होते ही वे अपने आपकी अल्पमति के रुप में पहचान करवाते थे और स्वरचित ग्रंथों का समापन वे कृतज्ञतावश साध्वी याकिनी महत्तरा का स्मरण करके अंत में याकिनी महत्तरा धर्मसूनु अर्थात् याकिनी महत्तरा का धर्मपुत्र के रुप में वे अपना परिचय निरुपित करते थे।
आचार्य हरिभद्रसूरिजी के हंस और परमहंस नामक दो शिष्यों की अन्य धर्मियों के हाथो हत्या हो गई। इससे आचार्यश्री का हृदय खलबला उठा। अपने प्रिय शिष्यों की क्रूर हत्या का आघात उनके मन में बदले की आग जगा गया। आचार्यश्री ने बौद्ध विहार में अभ्यास करते 1444 शिक्षार्थी एवं अध्यापकों को उबलते तेल के कडाही में जिंदा भून डालने का विचार किया। क्रोध विवेक को भगा देता है। आचार्यश्री के क्रोध का बीज वैर का वटवृक्ष बन गया । वैर का बदला लेने के लिए आचार्यश्री ने उपाश्रय के द्वार बंद किये। बडी भट्ठी सुलगाई। उस पर रखी कढाई में तेल डाला और फिर अपने मंत्रबल से उन अध्यापकों एवं विद्यार्थियों को आकर्षित करके आकाश में खडे रखे। क्रोधायमान आचार्यश्री की इच्छा तो एक के बाद एक विद्यार्थी तथा अध्यापक को मंत्रशक्ति से बुलाकर जीवित ही उबलते तेल की कढाई में डालने की थी। आचार्यश्री के वैर की बात की जानकारी साध्वी याकिनी महत्तरा को हुई । एक आचार्य के हाथों ऐसा
नृशंस हत्याकांड । साध्वी याकिनी महत्तरा उतावली से चलकर उपाश्रय में आईं उपाश्रय के द्वार बंध थे। आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपनी माता समान साध्वी याकिनी महत्तरा से कहा,
तत्काल मेरी क्रिया चल रही है, कुछ समय के बाद आना। साध्वी याकिनी महत्तरा ने 'दृढ आवाज से कहा- मुझे आपसे जरुरी काम है। तत्काल द्वार खोलो।
Jain Education International
116
For Personal & Private Use Only
द्वार खुला। साध्वी याकिनी महत्तरा ने विनयपूर्वक आचार्यश्री को वंदन
www.jainelibrary.org