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________________ * आचार्य श्री हरिभद्रसूरि महान ग्रंथकार एवं महाप्रभावक आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी ने संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में विपुल साहित्य सर्जन किया। प्रकांड विद्वता, अपूर्व ज्ञानप्रतिमा, व्यापक समभाव, निष्पक्ष विवेचनशक्ति और विरल भाषाप्रभुत्व के कारण उनका समग्र भारतीय साहित्य में विशिष्ट स्थान है। उनके द्वारा रचे हुए 1444 ग्रंथ जिनशासन का अनुपम ज्ञान वैभव है। वे आगमिक साहित्य के सर्वप्रथम टीकाकार थे और अपने ग्रंथों द्वारा उन्होंने योग के विषय में नई पगडंडी को आकारित किया है। वे चित्तौड के राजा जितारि के पुरोहित थे। वेदशास्त्र और दर्शनशास्त्र इत्यादि के जानकार ऐसे 14 विद्या के पारगामी थे। उस समय भारतवर्ष में वाद- विवाद में उन्हें पराजित करनेवाला कोई नहीं था। विद्या का घमंड इतना कि लोगों में ऐसा कहा जाता कि यह पंडित पेट में सोने का पट्टा, हाथ में कुदाली, बगल में जाल और कंधे पर निसैनी रखकर स्थान स्थान पर भ्रमण करते थे और खुले आम चुनौती देते थे। प्रचंड ज्ञान के अफरे से पेट फूलकर फट न जाय इसलिए पेट पर सोने का पट्टा बांधते थे। उन्हें जीतने की इच्छा रखनेवाला कोई वादि यदि धरतीपट छोडकर धरती के भीतर घुस गया होगा, तो कुदाली से धरती खोदकर मैं उसे बाहर निकालकर पराजित करूँगा। सागर के भीतरी भाग में छिपा होगा, तो इस जाल से मछली की तरह बाहर खींच निकालूँगा । यदि वह आकाश में चढ गया होगा तो उसे निसैनी से पकडकर पराजित करके धाराशायी कर दूँगा। कलयुग में स्वयं को सर्वज्ञ मानने वाले पंडित हरिभद्र ने प्रतिज्ञा की थी कि इस धरती पर ऐसा कोई ज्ञानी हो कि जिसके वचन मेरे जैसा सर्वशास्त्रज्ञ समझ न पाये, तो मैं उसका शिष्य हो जाऊँगा। एक समय जैन धर्म के प्रति द्वेष के कारण हरिभद्र ऐसा कहते थे कि पागल हाथी के पाँव तले कुचलकर मरना अच्छा किंतु जिनमंदिर में कभी भी नहीं जाना चाहिए। उसी हरिभद्र को एक बार उन्मत्त हाथी से स्वयं को बचाने के लिए जिनमंदिर का आश्रय ग्रहण करना पडा था। उस समय वीतराग की मूर्ति देखकर उन्होंने मजाक भी किया कि - तेरा शरीर मिष्टान्न भोजन की स्पष्ट साक्षी देता है, क्योंकि खोखले स्थान में अग्नि हो तो क्या पेड हराभरा रह सकता है ? एक बार पंडित हरिभद्र पालकी में बैठकर जा रहे थे, तब एक धर्मागार (धर्मस्थान) के निकट से प्रशांत मधुर कंठ में से प्रवाहित गाथा सुनी। पंडित हरिभद्र ने उसका अर्थ निकालने का बहुत प्रयत्न किया, फिर भी अर्थभेद निकलता नहीं था। चार वेद, तमाम उपनिषद, अठारह पुराण और सर्व विद्या में पारंगत ऐसे उस समय में श्रेष्ठ विद्वान हरिभद्र के ज्ञान का गर्व हिमलाय की तरह गलने लगा। 2011 Jain Education International वे नम्रभाव से गाथा गानेवाली जैन साध्वीजी के पास गये और कहा कि आप इस गाथा का अर्थ समझाईए । साध्वी महत्तरा याकिनी ने कहा कि तुम्हें गाथा का अर्थ समझना हो तो हमारे आचारानुसार कल हमारे गुरुदेव आयेंगे, तब अवश्य पधारिए। वे 115 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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