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________________ 21 स्थान पर वज्रदंती, वैद्यनाथ, लाल दंत मंजन, विक्को, हर्बो एवं दंतेश्वरी आदि का उपयोग करें। * स्नान के साबुनः- इसमें अधिकतर प्राणिज चर्बी होती है। * लिप्स्टीपक, शेम्पु ः- इसमें जानवरों की हड्डी का पावडर, लाल खून, चर्बी, जानवरों के निचोड का रस होता है। इन सबकी जांच सुअर, चूहे, बंदर आदि की आंखों में की जाती है। जिससे वे अंधे हो जाते हैं। * ब्रेड पाव :- इसमें अभक्ष्य मैदा, ईयल जैसे अनेक कीडों का नाश, खामीर बनाते समय त्रस जीवों का अग्नि में संहार तथा पानी का अंश रह जाने से बासी आटे में करोडों जीव (बैकटेरिया) उत्पन्न हो जाते हैं। XX. ओले (गार) अभक्ष्य :- कभी कभी वर्षा के साथ आकाश से बर्फ के गोलें (गार) गिरते हैं। यह बरफ के समान पानी के कोमल गर्भ का पिण्ड है। इन्हें ओला कहा जाता है। इनमें पानी के असंख्य जीव होते हैं। जीवन निर्वाह के लिए यह अनावश्यक हैं तथा बरफ के सदृश्य आरोग्य के लिए हानिकारक भी है। इसलिए ज्ञानि पुरुषों ने इसे अभक्ष्य कहा है। मिट्टी पीली मिट्टी (Masal खडी भुतडा मिट्टी काली मिट्टी कच्चा नमक_ लाल मिट्टी XXI. मिट्टी अभक्ष्य :- • सभी प्रकार की मिट्टी खडी, चूने से मिली हुई कलर, कच्चा नमक आदि अभक्ष्य है। इनके कण में पृथ्वीकाय के असंख्य जीव होते हैं। इन वस्तुओं का भक्षण जीवन के लिए अनावश्यक है। इससे न तो पेट भरता है और न शक्ति मिलती है, अतः त्याज्य है। कण For Personal - * मिट्टी भक्षण से होनेवाली हानियां : : * इसके भक्षण से पथरी, पांडूरोग, सेप्टिक, पेचिस जैसी भयंकर बिमारीयां होती है। * मिट्टी से पीलिया, आंव, पित्त तथा शरीर दुर्बल हो जाता है। बिच्छू * कई प्रकार की मिट्टी मेंढक आदि समूर्च्छिम जीवों की योनी रुप है, वह पिटीन में जाने से गला गाति का भाग उत‌ना है। XXII. विष अभक्ष्य :- विष अर्थात् जहर । यह आहार का एक रा भाग नहीं है, क्योंकि पेट में प्रवेश पाते ही यह मनुष्य के प्राणों का हरण कर लेता है। भ्रम, दाह आदि दोष उत्पन्न करके धीमें धीमें वेदना देकर मार डालता है। विष स्व पर जीवों का घातक होने से अभक्ष्य माना गया है। 62 खान विष अफिण आकडा करा धतूरा सर्वज्ञ प्रभु ने 15 कर्मादानों में विष व्यापार भी निषेध किया है। इसके व्यापार से अनेक अनर्थ सर्जित होते हैं और आत्मा की दुर्गति होती है। इसलिए विष का आत्मघात में या व्यसन में प्रयोग नहीं करना चाहिए। अंग्रेजी दवाईयाँ छिपकली सर्प MERERR www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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