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वहीं रहता है। इसके पश्चात् तीसरी 6 महीने में वाचनाचार्य तप करते हैं, (उनमें से एक साधु वाचनाचार्य हो जाता है।) शेष साधु उनकी सेवा करते हैं। हर बार तप का पारणा सभी साधु आयंबिल से करते हैं, इस दृष्टि से परिहार का तात्पर्यार्थ तप होता है उसी से विशेष आत्म शुद्धि की जाती है। यह तप पूर्ण होने पर वे साधुया तो इसी कल्प को पुनः प्रारंभ करते है या जिन कल्प धारण कर लेते हैं या वापस गच्छ में आ जाते हैं । भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में ही यह चारित्र होता है। स्त्री को यह चारित्र नहीं होता। वर्तमान में यह चारित्र नहीं है। 4. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र :- सामायिक अथवा छेदोपस्थापनीय चारित्र की साधना करते - करते जब क्रोध, मान, माया ये तीन कषाय उपशांत या क्षीण हो जाते हैं, केवल एक मात्र संज्वलन लोभ कषाय सूक्ष्म में रुप रह जाता है, उस स्थिति को सुक्ष्मसंपराय चारित्र कहते हैं। यह चारित्र दशवे गुणस्थानवर्ती साधु - साध्वियों को होता है। 5. यथाख्यात चारित्र :- जब चारों कषाय सर्वथा उपशम या क्षीण हो जाते हैं, उस
समय की चारित्रिक स्थिति को यथाख्यात चारित्र कहते हैं। यह चारित्र गुणस्थान की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त है। 1. उपशमात्मक यथाख्यात चारित्र 2. श्रयात्मक यथाख्यात चारित्र 1. प्रथम चारित्र ग्यारहवें गुणस्थान वाले साधक को, और द्वितीय चारित्र बारहवें और उससे ऊपर के गुणस्थानों में होता है।
इस प्रकार 5 समिति, 3 गुप्ति, 10 यति धर्म, 12 भावना, 22 परिषह और 5 चारित्र ये कुल मिलाकर संवर के 57 भेद होते हैं।
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