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* दसवाँ भव :- दसवें भव में प्रभु ऋषभदेव का जीव जीवानंद नाम से ख्यात शरीर को छोडकर अपने छः मित्रों सहित, बारहवें देवलोक में इन्द्र का सामानिक देव हुआ। यहाँ बाईस सागरोपम का आयु पूर्ण किया। * ग्यारहवाँ भव :- वहां से च्यवकर श्री ऋषभदेव का जीव जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में पुंडरीकिणी नामक नगर के राजा वज्रसेन की धारिणी रानी की कुक्षी से जन्मा, नाम वज्रनाभ रखा गया, जब बालक गर्भ में आया था तब उसकी माता को चौदह स्वप्न आयें थे। जीवानंद के भव में जो मित्र थे वे भी चार, तो वज्रनाभ के सहोदर भाई हुए और केशव का जीव दूसरे राजा के यहां जन्मा। पिता वज्रसेन राजा ने अपने बड़े पुत्र वज्र नाभ को राज्य शासन सौंप कर दीक्षा अंगीकार कर ली, क्रमशः घाती कर्म क्षय कर केवलज्ञान उपार्जन किया। ____ वज्रनाभ चक्रवर्ती थे। जब उनके पिता को केवलज्ञान हुआ तभी उनकी आयुधशाला में भी चक्ररत्न ने प्रवेश किया। और शेष तेरह रत्न भी उनको उसी समय प्राप्त हुए। जब उन्होंने पुष्कलावती विजय को अपने अधिकार में कर लिया तब समस्त राजाओं ने मिलकर उन पर चक्रवर्तित्व का अभिषेक किया। वज्रनाभ चक्रवर्ती की सारी संपदाओं का भोग करते थे तो भी इनकी बुद्धि हर समय धर्मसाधन की ओर ही रहती थी। ___एक बार वज्रसेन तीर्थंकर विहार करते हुए पुंडरीकिणी नगरी में पधारे। वहां समवसरण की रचना हुई, पिता तीर्थंकर की देशना सुनकर वज्रनाभ को वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षा अंगीकार कर ली और चौदह पूर्व का अध्ययन किया, घोर तपस्या करने लगे। उन्होंने वीश स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया । उनके साथ पांचे मित्रों ने भी चारित्र अंगीकार कर, सभी सर्वार्थसिद्धि में देव रुप में उत्पन्न हुए। * बारहवाँ भव :- पूर्वभव में निर्मल चारित्र पालकर सर्वाथसिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम आयुष्यवाला देव हुए। * तेरहवाँ :- आदिनाथ भगवान का भव
च्यवन कल्याणक :- तीसरे आरे में आषाढ कृष्णा चतुर्दशी के दिन उत्तराषाढा नक्षत्र में ऋषभदेव का जीव सर्वार्थसिद्ध देवलोक से च्यवकर नाभी कुलकर की जीवन संगिनी मरुदेवी की पवित्र कुक्षि में तीन ज्ञान सहित पधारें। उसी रात्रि में माता ने चौदह महास्वप्न देखे। वे इस प्रकार है - 1. वृषभ 2. हाथी 3. सिंह 4. लक्ष्मी 5. पुष्पमाला 6. चन्द्र 7. सूर्य | 8. ध्वज 9. कुंभ 10. पद्मसरोवर 11. क्षीरसमुद्र 12. देवविमान 13. । रत्न राशि 14. निधूम अग्नि। इन्द्रादि देवों ने च्यवन कल्याणक मनाया।
* जन्म कल्याणक :- गर्भकाल पूरा होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की मध्य रात्रि में माता मरुदेवा ने एक पुत्र तथा एक पुत्री को युगल रुप में जन्म दिया। चौसठ इन्द्र व सहस्त्रों देवों ने पृथ्वी पर आकर भगवान् का जन्मोत्सव मनाया। इतनी बड़ी संख्या में देवों को देखकर यौगलिक भी इकट्ठे हो गये। उत्सव विधि से अपरिचित होने पर भी देखा - देखी सभी ने मिलकर जन्मोत्सव मनाया। इस प्रकार अवसर्पिणी काल में सबसे पहले भगवान् का ही जन्मोत्सव मनाया गया। * नामकरण :- जन्मोत्सव के बाद नामकरण का अवसर आया। बालक का क्या नाम रखा जाये। इस संबंध में कुलकर नाभि ने कहा जब बालक गर्भ में आया था तब माता ने पहला स्वप्न वृषभ का देखा था और इसके उरुस्थल पर भी वृषभ का शुभ चिन्ह है, अतः मेरी दृष्टि से बालक का नाम वृषभकुमार रखा जाये। उपस्थित सभी युगलों को यह नाम उचित लगा। सभी ने बालक को इसी नाम से पुकारा। पुत्री का नाम सुनंदा रखा गया। बाद में संभवतः उच्चारण सरसता के कारण वृषभ से ऋषभ नाम प्रचलित हो गया। कल्पसूत्र की टीका में उनके अन्य
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