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उन दरवाजों को तुम्हीं खोलोगी। इससे जिनशासन का अपयश धुल जाएगा।
सुभद्रा के तीन दिन की तपस्या हो गई। चौथे दिन लोग सोकर उठे तो चंपा के चारों दरवाजे बंद थे। द्वारपालों ने बहुत प्रयास किया, पर द्वार नहीं खुले। संवाद राजा तक पहुंचा। राजा के आदेश से मदोन्मत्त हाथियों को
छोडा गया। दरवाजे नहीं टूटे। नगर से बाहर आने - जाने के सब रास्ते बंद होने से लोग परेशान हो गये। सहसा आकाशवाणी हुई - “कोई सती कच्चे धागे से चलनी बांधकर कुंए से पानी निकाले
और उससे दरवाजों पर छींटे लगाए तो वे खुल सकते हैं।'' राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि जो महासती यह महान कार्य करेगी, उसे राजकीय सम्मान दिया जाएगा। पूर्व दिशा के द्वार पर महिलाओं का मेला लग गया। निकटवर्ती कुंए में चलनियों का ढेर हो गया, पर पानी नहीं निकला। चारों ओर व्याप्त निराशा के बीच सुभद्रा ने अपनी सतीत्त्व प्रमाणित करने के लिए सास से आज्ञा मांगी। सास ने दो चार खरी - खोटी सुनाई। सुभद्रा ने अपने घर में ही चलने से पानी निकालकर सास को विश्वास दिलाया। उसके बाद सास की आज्ञा प्राप्त कर वह कुएं पर गई। उसने कच्चे धागे से चलनी को बांधा। चलनी कुएं में डालकर पानी निकाला। उस पानी से पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा के दिशाओं पर पानी के छीटे दिए। दरवाजे अपने आप खुल गए। चौथा दरवाजा उसने यह कहकर बंद ही छोड दिया कि कोई अन्य सती इसे खोलना चाहे तोखोल दे। दरवाजे खुलते ही नगर में उल्लास छा गया। सुभद्रा सती के जयघोषों से आकाश गूंज उठा। राजा ने
राजकीय सम्मान के साथ उसे घर पहुंचाया। सुभद्रा घर पहुंची, उससे पहले ही उसके सतीत्व का संवाद वहां पहुंच गया था। बुद्धदास, उसके माता - पिता और बहन की स्थिति बहुत दयनीय हो गई। अपराधबोध के कारण वे आंख भी ऊपर नहीं उठा पाए। उन्होंने अपनी जघन्य भूल के लिए क्षमायाचना की। उस समय भी सुभद्रा ने मन में उनके प्रति किसी प्रकार का रोष नहीं था। उसकी सहिष्णुता, विनम्रता और शालीनता ने परिजनों को इतना प्रभावित किया कि वे सब आस्था और कर्म से जैन बन गए। जैनशासन की अकल्पित प्रभावना हुई।
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