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________________ * श्री ऋषभदेव चारित्र * * प्रथम भव :- भगवान श्री ऋषभदेव का जीव एक बार अपर महाविदेह क्षेत्र के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में धना सार्थवाह का हुआ वहाँ सम्यक्त्व उपार्जन किया - इसी जम्बुद्वीप के महाविदेह क्षेत्र अंदर सुप्रतिष्ठित नाम का शहर था, उसमें प्रियंकर नामक राजा राज्य करता था। धना ने वसंतपुर जाने के लिए साथियों को एकत्रित किया और नगर में यह घोषणा करादी कि जो कोई वसंतपुर जाना चाहता है, वह हमारे साथ आ सकता है, उसका हम निर्वाह करेंगे, ऐसा सुनकर बहुत से लोग साथ में मिल गये। इससे अच्छा खासा बडा संघ हो गया, उस समय वहां पर विराजमान पांच सौ मनुरािज सहित आचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी को श्री वसंतपुर की यात्रा करने की अभिलाषा हुई और वे भी अपने साधु मंडल सहित उसके साथ चले । कई दिन के बाद मार्ग में जाते हुए सार्थवाह का पडाव एक जंगल में पडा (वर्षाऋतु) के कारण इतनी बारिश हुई कि वहां से चलना भारी हो गया। कई दिन तक पडाव वही रहा। जंगल में पड़े रहने के कारण लोगों के पास का खाना-पीना समाप्त हो गया लगे। सबसे ज्यादा कष्ट साधुओं को था, क्योंकि निरंतर जल - वर्षा के कारण उन्हें दो - दो, तीन - तीन दिन तक अन्न - जल नहीं मिलता था। एक दिन सार्थवाह को ख्याल आया कि मैंने साधुओं को साथ लाकर उनकी खबर भी न ली। वह तत्काल ही उनके पास गया और उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। उसका अन्तःकरण उस समय पश्चाताप के कारण जल रहा था। मुनि ने उसको सान्त्वना देकर उठाया। धना ने मुनि |ज से गोचरी लेने के लिए अपने डेरे चलने की प्रार्थना की। उत्कर्ष भाव से घी का दान दिया, निर्दोष देखकर मुनियों ने प्रसन्नता पूर्वक वह ले लिया। संसार - त्यागी, निष्परिग्रही साधुओं को इस प्रकार सुपात्रदान देने और उनकी तब तक सेवा न कर सका इसके लिए पश्चाताप करने से उसके अन्तःकरण की शुद्धि हई और उसे मोक्ष के कारण में अतीव दुर्लभ - बोधी बीज (सम्यक्त्व) प्राप्त हुआ। * दूसरा भव :- पहले भव में बहुत काल तक सम्यक्त्व पालकर अनत्य अवस्था में मनुष्य आयु पूर्ण कर उत्तर कुरुक्षेत्र में युगलिक हुआ। * तीसरा भव :- तीसरे भव में ऋषभदेव का जीव सौधर्म देवलोक में देव हुआ। . * चौथा भव :- चौथे भव में देवलोक से च्यवकर श्री ऋषभदेव का जीव पश्चिम महाविदेह क्षेत्र के अंदर गन्धलावती विजय में शतबल नामक राजा की रानी चन्द्रकान्ता की कुक्षि से “महाबल' नामक पुत्र रुप उत्पन्न हुआ। युवावस्था प्राप्त होने पर वह महाविषयी और लम्पटी हो गया स्त्री - समूह के गीत गान - नृत्यादि श्रृंगार रस में लुब्ध बना रहता था, यहां तक कि सूर्य उदय अस्त का भी उसे ख्याल नहीं रहता था, धर्म में कभी प्रवृत्ति नहीं करता था । एक समय नाटक चल रहा था, मधुर स्वर से गीत गान हो रहा था, महाबल राजा एकाग्रता से आनंद ले रहा था, तब उसके मंत्री सुबुद्धि ने उसको बोध दिया “तमाम ये गीत - गान विलाप के समान है, समग्र नाटक विडम्बना समान है, सर्व आभूषण भारभूत है और समस्त काम दुःख रुप है। यह सुनकर राजा ने मंत्री को कहा “ अहो मंत्रिश्वर ! प्रसंग बिना तुमने यह क्या कहा ?'' तब प्रधान ने निवेदन किया “हे प्रभो ! केवली भगवंत ने मेरे आगे ऐसा फरमाया कि महाबल राजा की आयुष्य मात्र एक मास ही है इसलिए सावधान करने को मैंने यह कहा, यह सुनकर राजा भय से कंपित होकर मंत्री से पूछने लगा, आज तक मैं विषय वासना में आसक्त हूं, मुझे अब क्या करना चाहिए ? एक मास में बन भी क्या सकेगा? तब मंत्री ने कहा - एक महीने में तो व्यक्ति बहुत कुछ धर्म कर सकता है। एक दिन का सुपालित साधु-धर्म मोक्ष दायक हो सकता है, जो मोक्ष को प्राप्त न कर सके तो वैमानिक देव तो अवश्य प्राप्त होता है, मंत्री का यह उपकारपूर्ण वचन सुनकर राजा ने अपने पुत्र को eeeeeee... siteidreationntitenditurnal reeeeeeeeeee......... For ersonal Private use only www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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