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* आश्रव तत्व
संसार के सभी प्राणी कर्मों से युक्त हैं, प्राणियों के जीवन में प्रतिक्षण कर्मों का आवागमन चलता रहता है। जिन कर्मों का आगमन होता हैं, वे जीव से सम्बद्ध हो जाते हैं और देर-सवेर अपना फल देकर चले जाते हैं। फिर नये कर्म आते हैं, बंधते हैं एवं इसी तरह अपना फल भुगताकर चले जाते हैं। अल्पज्ञ जीव इस बात को नहीं जानता कि कर्म कब आया, कैसे और कब अपना फल देकर चला गया।
संसार के प्राणी, विशेष रुप से मानव भी प्रायः नहीं जानते और न ही जानने का प्रयत्न करते हैं कि हम इस लोक में एवं इस रुप में क्या व किस कारण से आये हैं, कहाँ से आये हैं और हमें कहाँ जाना है, जो जिज्ञासु है वे भी कर्म सिद्धांत को मात्र इस रूप में जानते हैं कि जीव जैसा शुभाशुभ कर्म करता है वैसा शुभाशुभ फल भोगता है, उनकी जिज्ञासा होती है, कर्म का आगमन क्यों और कैसे होता है ? उस कर्माश्रव का स्वरुप क्या है ? वह कितने प्रकार का है? कर्म कैसे बिना बुलाए आते हैं और कैसे आत्मा से चिपक जाते हैं ? क्या कर्म को आते हुए रोका भी जा सकता है ? इन जिज्ञासाओं का समाधान इस प्रकार है - शुभ और अशुभ कर्मों के आगमन को जैन कर्म विज्ञान की भाषा में आश्रव कहते हैं, जिस क्रिया या प्रवृति से जीव में कर्मों का स्त्राव (आगमन) होता है वह आश्रव है। आश्रव कर्मों का प्रवेश द्वार है।
* आश्रव की व्याख्या :
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पूर्वाचार्यों ने आश्रव शब्द को कई तरह से व्युत्पति की है 1. आश्रवन्ति : प्रतिशत्ति येत कर्माण्यात्मनीत्यास्त्रवः कर्म बंध हेतु रितिभावः । (स्थानांग टीका) अर्थात् जिसके द्वारा कर्म आत्मा में प्रवेश करते हैं, वह आश्रव है। अर्थात् कर्मबंध के हेतु आश्रव है। जैसे जल में रही हुई नौका में छिद्रों द्वारा जल प्रवेश होता है, इसी प्रकार पाँच इन्द्रिय और विषय कषायादि छिद्रों से कर्मरुपी पानी का प्रवेश होना आश्रव है। तत्वार्थ सूत्र में आश्रव की व्याख्या करते हुए कहा गया है - कायवांगमन कर्म योग: । स आश्रवः काया, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं, वही योग आश्रव है, अर्थात् कर्म का संबंध कराने वाला है। मन वचन काया के शुभ और अशुभ योग के द्वारा जो कर्म बांधते हैं, उनमें कषायों के कारण भिन्नता आ जाती है। अर्थात् योगों की समानता होने पर भी कषाययुक्त जीवों को जो बंध होता है, वह विशेष अनुभाग वाला और विशेष स्थिति वाला होता है। कर्माश्रवों में ब्राह्य साधन समान होने पर भी कर्मबंध में अंतर हो जाता है। अतः कर्माश्रवों का आधार मुख्यतया अध्यवसाय (भाव) है। बाह्य क्रियाएँ और उनके साधन एक सीमा तक कर्मबंध के निमित्त होते हैं। मुख्य रुप से कर्मबंध अध्यवसायों पर निर्भर करता है। बाह्य क्रिया समान होने पर भी अध्यवसायों में बहुत अंतर हो सकता है।
मिथ्यात्व
अव्रत
कषाय
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प्रमाद
5. आसव
योग
नाव में छेद
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