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उत्कर्षता सिद्ध हुई या जिस कक्षा में बैठे थे, उस कक्षा में पाठ्यक्रम के अनुसार उत्तर ठीक हुए तो पूर्णता और परमानंद का प्रमाणपत्र परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुए छात्र की तरह मनुष्य को भी मिलता है। आए दिन की छोटी-मोटी असुविधाओं को तुच्छ, नगण्य एवं महत्वहीन समझना चाहिए। उनमें उलझ जाएंगे और उन्हें अत्यधिक महत्त्व दे देंगे तो जीवन का मूल दृष्टि से ओझल हो जाएगा। आप मानव जीवन की इस परीक्षा में सफल नहीं हो सकेंगे।
कैसे हो जीवन में धर्म का आचरण?
सबसे पहले उदार बनें, साहस पैदा करें और आध्यात्मिक जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए तत्पर हो जायें, फिर देखें कि महानता की जिस उपलब्धि के लिये आप निरन्तर लालायित रहते है, वह सच्चे मायने में प्राप्त होती है या नहीं? आत्मा में अनंत शक्ति छिपी है, उसे धर्मपालन द्वारा जागृत करना है। शक्ति को साधना से जगाना ही मानव जीवन की सार्थकता है।
निष्कर्ष यह है कि मनुष्य को अपने जीवन की सार्थकता एवं अन्तिम परीक्षा के लिए अपना जीवन धर्मयुक्त बिताना आवश्यक है। प्रश्न होता है कि धर्म में तो अनेक सद्गुणों का महापूंज है, महासागर है, इसका विवधि सद्गुणों के रूप में पालन कैसे हो सकेगा? मनुष्य को धर्म की मर्यादा में कौन चला सकेगा? कौन उसे नियंत्रण में रख सकेगा? चूंकि धर्म तो अपने आप में एक भाव है, जो मनुष्य को अमुक-अमुक सीमा में रहने या आत्मा को रखने की बात बताता है कि लेकिन उक्त धर्म के अनुसार चलाने वाला कौन है ? धर्म तो एक प्रकार का आध्यात्मिक कानून है, आचार संहिता (Code of Conduct) है, उसका पालन कराने वाला कौन है ?
जैसे सरकारी कानून को सरकार दण्डशक्ति द्वारा पालन करवाती है, फिर भी कई लोग उसमें गड़बड़ कर डालते हैं। इसीलिए धर्म का स्थान सरकारी कानून से ऊंचा है। उसका पालन अगर किया जा सकता है तो व्रतों के माध्यम से ही। मनुष्य जब स्वेच्छा से व्रत ग्रहण करता है, तभी वह अपने जीवन में धर्माचरण यथेष्ट रूप से कर सकता है, धर्म-मर्यादा में चल कर अपने और दूसरों के जीवन को सुखी और आश्वस्त बना सकता है।
धर्म मर्यादाओं को समझने के पूर्व, स्वयं की पहचान करनी है कि जिन शासन का कौनसा अंग बनकर वह अपने जीवन को साकार बनाएगा। जिनशासन के स्तम्भ :
जैन परम्परा में तीर्थंकर धर्मतीर्थ की स्थापना करते है। धर्म तीर्थ के लिए संघ, जिनशासन आदि शब्दों का प्रयोग होता है। संघ के चार अंग होते है। साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका। यह विभाजन व्रत के आधार पर किया गया है। इन व्रतों का विभाजन करते हुए वीतरागी प्रभु ने आत्म कल्याण के लिए दो प्रकार का धर्म फरमाया है
"धम्मे दुविहे पण्णत्ते तं जहां - सागार धम्मे चेव, अणगार धम्मे चेव" एक है सागार धर्म, दूसरा अणगार धर्म।
भगवान ने अणगार धर्म व सागार धर्म की अलग-अलग व्यवस्थाएं स्थापित की। उन्होंने धर्म का मूल आधार सम्यक्तव एवं अहिंसा को बताया और उसी की पुष्टि के लिए पांच व्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की प्ररूपणा की। इन व्रतों को पूर्णतः पालन करने वाले को साधु-साध्वी तथा इन व्रतों का स्थूल रूप(आंशिक रूप) से पालन करने वाले को श्रावक-श्राविका की उपाधि से विभूषित किया। साधु-साध्वी के लिए उपरोक्त पांच व्रत महाव्रत कहलाते है व श्रावक श्राविका के लिए अणुव्रत कहलाते है। साधु-साध्वी महाव्रत का पालन करते है। श्रावक-श्राविका महाव्रतो का पालन करने में असमर्थ होते है। अतः उनकी शक्ति अनसार वे अणुव्रतों का पालन करते है।
अगार धर्म को श्रावक धर्म भी कहा जाता है। श्रावक धर्म को जीवन में उतारने से हम गृहस्थ अवस्था में रहते
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