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________________ 22-2-22022-222 866929 आत्मवाद एक पर्यवेक्षण (जीव तत्त्व): आत्मा के संबंध में कितने ही दार्शनिकों ने अपना अपना मन्तव्य पेश किया है। प्रायः जगत को सभी पाँच महाभूतों की सत्ता मानते है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के सम्मेलन से ही आत्मा नामक तत्त्व की उत्पत्ति होती है। दार्शनिक चिंतन की इस उलझन में कभी पुरुष को कभी प्रकृति को, कभी प्राण को, कभी मन को आत्मा के रुप में देखा गया फिर भी चिंतन को समाधान प्राप्त नहीं हुआ और वह आत्मा विचारणा के क्षेत्र में निरंतर आगे बढ़ता रहा। जीव-द्रव्य : आत्मद्रव्य स्वतंत्र है इसके प्रमाण :__ क्या जगत में जड़ से सर्वथा भिन्न स्वतंत्र चेतन - आत्मद्रव्य है ? इसके अस्तित्व में प्रमाण है ? हां, स्वतंत्र आत्मद्रव्य है व इसमें एक नहीं अनेक प्रमाण है, - 1. जब तक शरीर में यह स्वतंत्र आत्मद्रव्य मौजूद है तब तक ही खाए हुए अन्न के रस रुधिर, मेद आदि के कारण केश नख आदि परिणाम होते हैं। मृतदेह में क्यों सांस नहीं ? क्यों वह न तो खा सकता है ? और न जीवित देह के समान रस, रुधिरादि का निर्माण कर सकता है ? कहना होगा कि इसमें से आत्मद्रव्य निकल गया है इसीलिए। 2. आदमी मरने पर इसका देह होते हुए भी कहा जाता है कि इसका जीव चला गया। अब इसमें जीव नहीं है। यह जीव ही आत्मद्रव्य है। 3. शरीर एक घर के समान है। घर में रसोई, दिवानखाना, स्नानागार आदि होते हैं, परंतु उसमें रहनेवाला मालिक स्वयं घर नहीं है। वह तो घर से पृथक ही है। उसी प्रकार शरीर की पाँच इन्द्रियाँ है परंतु वे स्वयं आत्मा नहीं है। आत्मा के बिना आँख देख नहीं सकती, कान सुन नहीं सकते, और जिह्वा किसी रस को चख नहीं सकती। आत्मा ही इन सब को कार्यरत रखती है। शरीर में से आत्मा के निकल जाने पर इसका सारा काम ठप हो जाता है - जैसे कि माली के चले जाने पर उद्यान उजाड़ हो जाता है। 4. आत्मा नहीं है इस कथन से ही प्रमाणित होता है कि आत्मा है। जो वस्तु कहीं विद्यमान हो, उसी का निषेध किया जा सकता है। जड़ को अजीव कहते हैं। यदि जीव जैसी वस्तु का अस्तित्व ही न हो तो अजीव क्या है ? जगत् में खरोखर ब्राह्मण है, जैन है, तभी कहा जा सकता है कि अमुक आदमी अब्राह्मण है अमुक अजैन है। 5. शरीर को देह, काया, कलेवर भी कहा जाता है। ये सब शरीर के पर्यायार्थक अथवा समानार्थक शब्द है। उसी प्रकार जीव के पर्यायशब्द आत्मा, चेतन, ज्ञानवान आदि है। भिन्न भिन्न पर्यायशब्द विद्यमान भिन्न - भिन्न पदार्थ के ही होते हैं। इससे भी अलग आत्मद्रव्य सिद्ध होता है। प्रीतिभोज में भाग लेनेवाला अधिक मात्रा में परोसनेवाले से कहता है - कि और मत डालिए, यदि मैं अधिक खाऊंगा तो मेरा शरीर बिगड़ेगा। यह मेरा' कहने वाली आत्मा अलग द्रव्य सिद्ध होती है। यदि शरीर ही आत्मा होता तो वह इस प्रकार कहता - मैं अधिक खाऊंगा तो मैं बिगडुंगा, किंतु कोई ऐसा कहता नहीं है। जैन दृष्टि से जीव का स्वरूप : पंडित प्रवर श्री सुखलालजी का मन्तव्य है कि स्वतंत्र जीववादियों में प्रथम स्थान जैन परंपरा का है। उसके मुख्य दो कारण है। प्रथम कारण यह है कि जैन परंपरा की जीव-विषयक विचारधारा सर्वसाधारण को समझ में आ सकती है। जैन परंपरा में जीव और आत्मवाद की मान्यता उसमें कभी भी किञ्चित् मात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ है। जीव अनादि निधन है, न उसकी आदि है और न अंत है। वह अविनाशी है। अक्षय है। द्रव्य की AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAACARAcaallaPrise 299.90494999 000 ameliforanMODARA
SR No.004050
Book TitleJain Dharm Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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