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________________ लेता है। आत्मा रूपी नौका तप, संयम से सुरक्षित रहता हुआ समुद्र में अपनी यात्रा पूरी करके संसार के समस्त दुःखों व भयों से मुक्त होकर मोक्षरूपी सुरम्य तट पर पहुँचकर अपनी यात्रा पूर्ण करता है। चित्र के मध्य से बताया गया है कि संसार रूपी समुद्र में शुभ-अशुभ कर्म रूपी जल आसव रुपी छिद्रों द्वारा नाव में प्रतिक्षण प्रविष्ट होता रहता है। और उन छिद्रों में एकाकार हुआ रहता है। छिद्रों को रोकना संवर है, बाल्टी आदि से पानी उलीचना तथा सूर्य की किरणों के ताप से पानी का सूखना निर्जरा है। नाव का कुशल क्षेम पूर्वक किनारे लगना लोकाग्र भाग पर स्थित सिद्धक्षेत्र पर स्थित होना मोक्ष है। तत्त्व के नाम भेद जीव अजीव पुण्य पाप आसव संवर निर्जरा बंध मोक्ष 14 14 42 82 42 57 12 4 9 276 व्याख्या जो जीता है, प्राणों को धारण करता है, जिसमें चेतना है, वह जीव है । यथा मानव, पशु, पक्षी वगैरह । जिसमें जीव, प्राण, चेतना नहीं है, वह अजीव है। यथा शरीर, टेबल, पलंग, मकान आदि । शुभकर्म पुण्य है अर्थात् जिसके द्वारा जीव को सुख का अनुभव होता है, वह पुण्य है। अशुभकर्म पाप है अर्थात् जिसके द्वारा जीव को दुःख का अनुभव होता है, वह पाप है। कर्म के आने का रास्ता अर्थात् कर्म बंध के हेतुओं को आस्रव कहते हैं। आते हुए कर्मों को रोकना ... संवर है। कर्मों का क्षय होना निर्जरा है। आत्मा और कर्म का दूध और पानी की तरह संबंध होना वह बंध है। संपूर्ण कर्मों का नाश या आत्मा के शुद्ध स्वरुप का प्रगटीकरण होना मोक्ष है। तत्त्वों का क्रम : नवतत्त्वों में सर्वप्रथम जीव तत्त्व को स्थान दिया गया हैं। क्योंकि तत्त्वों का ज्ञाता, पुद्गल का उपभोक्ता, शुभ और अशुभ कर्म का कर्ता तथा संसार और मोक्ष के लिए योग्य प्रवृति का विधाता जीव ही है। यदि जीव न हो तो पुद्गल का उपयोग क्या रहेगा ? जीव की गति में अवस्थिति में, अवगाहना में और उपभोग आदि में उपकारक अजीव तत्त्व है, अतः जीव के पश्चात् अजीव का उल्लेख है। जीव और पुद्गल का संयोग ही संसार है। आश्रव और बंध ये दो संसार के कारण है अतः अजीव के पश्चात आश्रव और बंध को स्थान दिया गया है। संसारी आत्मा को पुण्य से सुख का बोध और पाप से दुःख का बोध होता है। पुण्य और पाप का स्थान कितने ही ग्रन्थों में आश्रव और बंध के पूर्व रखा गया है और कितने ही ग्रन्थों में उसके बाद में रखा गया है। संवर और निर्जरा मोक्ष का कारण है। कर्म की पूर्ण निर्जरा होने पर मोक्ष होता हैं अतः संवर, निर्जरा और मोक्ष यह क्रम रखा गया है। er48l
SR No.004050
Book TitleJain Dharm Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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