________________
A
ॐ
.000000000066644600.00 GOAL
A AAAAAAAAAAAA AAAAAAAAAAA
AAA............................ ... ...... ..AARAANKy
AAAAAAAAAA A . .................AAAAAANDO
दर्शनावर्णीय, मोहनीय और अंतराय कर्म) का संपूर्ण क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त किया। संपूर्ण लोकालोकदृश्यादृश्य विश्व के तीनों काल के मर्तामूर्त, सूक्ष्म या स्थूल, गुप्त या प्रकट ऐसे समस्त जड़-चेतन पदार्थ और उनके पर्यायों (अवस्थाओं) के प्रत्यक्ष ज्ञाता और द्रष्टा बने। इतना ही नहीं वे अठारह दोष रहित सर्वगणसा अरिहन्त होकर तीनों लोक के पूजनीय बने। उनका साधना काल समाप्त हो गया।
___ केवली बनते ही चौसठ इन्द्रों व अनगिनत देवी-देवताओं ने भगवान का केवलज्ञान महोत्सव मनाया। देवों ने समवसरण की रचना की। इस समवसरण में केवल देवी-देवता थे। उन्होंने प्रवचन को सुना, सराहना की पर महाव्रत एवं अणुव्रत की दीक्षा नहीं ले सके, क्योंकि देवता सत्य, संयम, शील के उपासक तो हो सकते है. परंत नियम ग्रहण कर उसकी साधना नहीं कर पाते। संयम की पात्रता केवल मनुष्य में ही है। इस दृष्टि से यह माना जाता है कि कोई भी मनुष्य व्रत ग्रहण का संकल्प नहीं कर सका, इस कारण प्रभु की प्रथम देशना निष्फल रही।
समवसरण में 11 ब्राह्मण विद्वानों को प्रवज्या, गणधर पद प्रदान, शास्त्रों का सृजन और श्री संघ की स्थापना
भगवान महावीर जंभियग्राम से विहार कर मध्यम पावा पधारे। पावा का प्रांगण उत्साह से भर गया। इस हलचल को देखकर कुछ लोगों ने सोचा, भगवान के आवागमन पर यह सब कुछ हो रहा है तो कुछ लोगों ने सोचा महाविद्वान सोमिल विप्र द्वारा आयोजित यज्ञ के कारण हो रहा है।
उस यज्ञ की आयोजना में अनेक पंडित विद्यमान थे। जिनमें इन्द्रभूति, अग्निभूति आदि प्रख्यात ग्यारह धुरंधर विद्वान भी विद्यमान थे। भगवान महावीर के आगमन पर पावा में देवों ने समवसरण की रचना की। शहर के नर-नारियां झुंड के झुंड
वहां पहुंचने लगे। गगनमार्ग से देव-देवियों के समूह भी आने लगे। उन्हें देखकर पंडित बहुत खुश हुए कि ये देव और देवियां हमारे यज्ञ में आहुति लेने आ रहे हैं किन्तु कुछ ही क्षणों में वे यज्ञ मंडप से आगे निकल गये। जानकारी करने पर ज्ञात हुआ कि वे भगवान महावीर के समवसरण में जा रहे हैं। उन्होंने सोचा ये कोई पाखंडी, मायावी है। हमें चलकर इनका भंडाफोड करना चाहिए। सबसे पहले इन्द्रभूति गौतम अपनी शिष्य मंडली के साथ समवसरण की दिशा में भगवान महावीर को पराजित करने हेतु रवाना हुए। इन्द्रभूति के लौटने में विलंब होने के कारण अग्निभूति आदि अन्य साथी भी क्रमशः वहां पहुंच गये और भगवान महावीर के मुख से अपनी शंकाओं का समाधान पाकर नतमस्तक हो गये। उनका अहं विगलित हो गया और उन्होंने अपने शिष्यों सहित(4400) भगवान के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। इन सब की दीक्षा के साथ ही तीर्थ का प्रवर्तन हुआ इन्द्रभूति गौतम प्रधान शिष्य बने मुख्य ग्यारह मुनियों को त्रिपदी दी। उसके आधार पर प्राकृत भाषा में द्वादशांक शास्त्रों की रचना
की। भगवान ने उनको प्रमाणित किया और चतुर्विध संघ की स्थापना की। गणधर
"गणं धारयति इति गणधरः'' अर्थात जो गण (संघ) का भार धारण करते हैं, वे गणधर कहलाते हैं। तीर्थंकर द्वारा अर्थ रूप में कहे गये प्रवचन को धारण कर उसकी सूत्र रूप में व्याख्या करने वाले गणधर होते हैं। भगवान
0000000000000. *AAAAAA A
Jain Education International
sokharsons437
For Personal de hvate use only
RAANI137
Ramjitendra.org