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________________ ********************** होगा । 9. अंत्र - आपने अपनी आंतों से मानुषोत्तर पर्वत को वेष्टित देखा है। उसके फलस्परूप संपूर्ण त्रिभुवन में आपका निर्मल यश, कीर्ति, और प्रताप फैलेगा। 10. मंदरगिरि आपने अपने को मंदराचल (मेरूपर्वत) पर आरूढ़ देखा है। उसके फलस्वरूप आप सिंहासन पर विराजकर आप धर्मोपदेश देंगे। दरिद्र ब्राह्मण को आधे देवदूष्य वस्त्र का दान जब भगवान वर्षीदान द्वारा लाखों मानवों का दारिद्रय दूर कर रहे थे, उस समय सोम नामक एक ब्राह्मण द्रव्योपार्जन के लिये परदेश गया हुआ था। वह वहां से धनप्राप्ति किये बिना ही वापस लौट आया। यह देखकर दीनता से त्रस्त उसकी पत्नी ने उपालम्भ देते हुए कहा कि आप कैसे अभागे है। जब वर्धमानकुमार ने सोने की वर्षा की उस समय आप परदेश चले गये और परदेश से आये तो खाली हाथ वापस आये। अब क्या खाएंगे ! अब भी जंगम कल्पवृक्ष जैसे वर्धमान के पास जाओ, वे बहुत दयालु और दानवीर हैं, प्रार्थना करो, वे अवश्य ही दारिद्र्य दूर करेंगे। वह ब्राह्मण विहार में भगवान से मिला । उसने दीन-मुख हो प्रार्थना करते हुए कहा कि “आप उपकारी हैं, दयालु हैं, सब का दारिद्रय आपने दूर किया है, मैं ही अभागा रह गया हूं, हे कृपानिधि ! मेरा उद्धार करो।" अब भगवान के पास कन्धे पर केवल देवदूष्य वस्त्र था, उसमें से उन्होंने आधा भाग चीर कर दे दिया। ब्राह्मण भगवान को वंदन करके आभार मानकर घर गया। उसकी स्त्री ने उसे बुनकर के पास भेजा। बुनकर ने कहा कि इसका बचा हुआ आधा वस्त्र यदि ले आओ तो मैं उसे अखण्ड बना दूं। इस का मूल्य एक लाख दीनार (सुवर्ण मुद्राएं) मिल जाएंगी और हम दोनों सुखी हो जाएंगे। वह भगवान के पास पहुंचा। लज्जावश वह मांग तो नहीं सका, किन्तु उनके पीछे घूमते-घूमते जब वायु के द्वारा उड़कर वह वस्त्र कांटों में उलझ गिर गया, तब उसे लेकर वह घर पहुंचा। इसके बाद भगवान जीवनभर निर्वस्त्र रहे। क्रोध - हिंसा में रत दृष्टिविष चंडकौशक सर्प को प्रतिबोध (क्रोध के आगे क्षमा की, हिंसा के आगे अहिंसा की अद्भुत विजय ) यह सर्प पूर्व भव में एक तपस्वी मुनि था, मासक्षमण के पारणे भिक्षा के लिये जा रहा था, उस समय उसके पैर के नीचे एक मेंढ़की आ गई, पीछे चलते हुए उसके शिष्य ने उसे मरी हुई देखी - यह नहीं कहा जा सकता कि पहले किसी के पैर से मरी हुई थी या मुनि के पैर से मरी । आहार की आलोचना के समय, प्रतिक्रमण के समय और राइ संथारा के वक्त शिष्य ने गुरु महाराज को मेंढ़की विराधना का मिच्छामि दुकडमं देने की प्रार्थना की, दो बार तो सुनी अनसुनी की, तीसरी बार रात को क्रोधाकान्त होकर शिष्य को मारने दौड़ा बीच में स्तंभों से सिर फूट गया उसकी वेदना से मर कर नरक में गया, वहां से निकल कर तापस हुआ, वहां भी अपने वन में आये हुए राजकुमारों को त्रास पहुंचाता, एक दिन कुल्हाड़ा लेकर उनके पीछे दौड़ा, पैर रपट जाने से फरसी का प्रहार लगा Jale Education 32 ******* के के आज के
SR No.004050
Book TitleJain Dharm Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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