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________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [इकतीस] स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति एवं महावीर के गर्भपरिवर्तन की बात मानते थे। वे श्वेताम्बर-आगमों को भी मानते थे। इस अत्यन्त समानता से सिद्ध होता है कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति श्वेताम्बरसंघ से हुई थी। __ इस अध्याय में उन विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला गया है, जो यापीनयग्रन्थ के असाधारणधर्म या लक्षण हैं, जिनके सद्भाव या अभाव से यह निर्णय होता है कि अमुक ग्रन्थ यापनीयग्रन्थ है या नहीं। सप्तम अध्याय के अन्त में क्रमशः शब्दविशेष-सूची एवं प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची विन्यस्त की गयी हैं। द्वितीय खण्ड की विषयवस्तु इस खण्ड में आठवें अध्याय से लेकर बारहवें अध्याय तक कुल पाँच अध्याय निबद्ध किये गये हैं। __ अष्टम अध्याय-आचार्य कुन्दकुन्द ने किसी भी ग्रन्थ में अपने दीक्षागुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया। श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी ने इसका कारण यह बतलाया है कि कुन्दकुन्द शुरू में बोटिक शिवभूति द्वारा प्रवर्तित यापनीयसंघ में उसकी परम्परा के किसी शिष्य द्वारा दीक्षित हुए थे। किन्तु आगे चलकर उन्हें अपने गुरु का शिथिलाचार तथा यापनीयमत की अयुक्तिसंगत मान्यताएँ पसन्द नहीं आयीं, इसलिए वे उनके विरुद्ध हो गये। अन्ततः उन्होंने अपने गुरु का साथ छोड़ दिया और पृथक् दिगम्बरसंघ स्थापित कर लिया। इसीलिए उन्होंने अपने गुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया। श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी का कथन है कि कुन्दकुन्द प्रारम्भ में मन्दिर मठों में नियतवास करनेवाले और राजाओं से भूमिदान आदि ग्रहण करनेवाले भट्टारकसम्प्रदाय के भट्टारक थे। किन्तु, जब उन्हें धर्म के तीर्थंकरप्रणीत वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ, तब उनके मन में अपने भट्टारक गुरु के प्रति अश्रद्धा हो गयी और वे उनसे अलग हो गये। इसी कारण उन्होंने अपने ग्रन्थों में उनके नाम का स्मरण नहीं किया। आचार्य हस्तीमल जी ने कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल वीर नि० सं० १००० अर्थात् ४७३ ई० के लगभग माना है और उस समय जो दिगम्बरजैन मुनि मन्दिर-मठ में नियतवास करते थे और राजाओं से ग्राम-भूमि आदि का दान ग्रहण कर गृहस्थों जैसा जीवन व्यतीत करते थे, उनके सम्प्रदाय को भी भट्टारकसम्प्रदाय घोषित किया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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