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यापनीयसंघ का इतिहास / ५७७
अ० ७ / प्र० ४
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' तथा चोक्तमाचारांगे — सुदं मे आउस्सत्तो भगवदा एवमक्खादं - इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थीपुरिसा जादा हवंति । तं जहा - सव्वसमणागदे णोसमणागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमगदे थिरांगहत्थपाणिपादे सव्विंदियसमण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थं धारिडं एव परिहिउं एव अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति । " (वि.टी./ भ.आ./गा.' आचेलक्कुद्देसिय' ४२३ / पृ. ३२५) ।
" इसमें बतलाया है कि पूर्ण श्रामण्य के धारी को, जिसके हाथ-पैर सक्षम होते हैं और सब इन्द्रियाँ समग्र होती हैं, उसे प्रतिलेखन के सिवाय एक भी वस्त्र धारण नहीं करना चाहिए। यह उद्धरण वर्तमान आचारांग में नहीं मिलता, जबकि अन्य उद्धरण उसमें मिलते हैं।
" इसी तरह उत्तराध्ययन से भी कुछ पद्य ('आचेलक्कुद्देसिय' गाथा की विजयोदया टीका में) उद्धृत किये गये हैं, जिनमें से कुछ वर्तमान उत्तराध्ययन में नहीं मिलते। दो पद्य नीचे लिखे हैं
परिचत्तेसु वत्थेसु पुणो अचेलपवरे भिक्खू जिणरूवधरे
ण
चेलमादिए । सदा ॥
सचेलगो सुखी भवदि असुखी चावि अचेलगो । अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खू ण चिंतए ॥
"इनमें बतलाया है कि वस्त्र को त्यागकर पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए और जिनरूपधारी भिक्षु को सदा अचेल रहना चाहिए। वस्त्रधारी सुखी होता है, वस्त्रत्यागी दुःखी, अतः मैं सचेल रहूँगा, ऐसा भिक्खु को नहीं सोचना चाहिए ।
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" अपराजितसूरि ने कल्पसूत्र से भी अनेक पद्य उद्धृत किये हैं, जो मुद्रित कल्पसूत्र में नहीं मिलते।" (जै. सा. इ. / पू. पी. / पृ. ५२५-२६) ।
ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि माथुरीवाचना के आगमों में पाये जानेवाले नग्नत्वसमर्थक अनेक पाठ वलभीवाचना के आगमों में शामिल नहीं किये गये। इससे निश्चित होता है कि यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगम वर्तमान श्वेताम्बर - आगमों से किञ्चित् भिन्न थे ।
माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने यहाँ पर कहा है कि अपराजितसूरि द्वारा आगमग्रन्थों से दिये गये अनेक उद्धरणों में से अनेक वर्तमान आगमों में नहीं मिलते। यहाँ अनेक में से अनेक का अभिप्राय 'कुछ' होता है, सब नहीं। पंडित जी ने स्वयं कहा है कि केवल यह उद्धरण ( उपर्युक्त) वर्तमान आचारांग में नहीं मिलता, शेष मिलते हैं । किन्तु डॉ० सागरमल जी नें पण्डित जी के कथन का यह अभिप्राय ले
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