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अ०५/प्र०१
पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३८१ डॉ० सागरमल जी ने अर्धफालक-सम्प्रदाय के अस्तित्व से इनकार किया है और इस प्रकार के साधुसम्प्रदाय को संघभेद (श्वेताम्बर-यापनीय-भेद) के पूर्व का मूल निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय माना है। वे लिखते हैं-"पुनः मथुरा के प्राचीन शिल्प में मुनि के हाथ की कलाई पर लटकते हुए वस्त्र का अंकन भी मिलता है, जिससे वे अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं। यह तथ्य इस शिल्प को दिगम्बर-परम्परा से पृथक् करता है। किन्तु मथुरा का जैनशिल्प यापनीय भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यापनीयपरम्परा की उत्पत्ति किञ्चित् परवर्ती है। इस शिल्प में आर्य कृष्ण (अज्ज कण्ह) का, जिनके शिष्य शिवभूति से 'आवश्यक मूलभाष्य' में बोटिक या यापनीय-परम्परा का विकास माना गया है, नामोल्लेखपूर्वक अंकन उपलब्ध होता है। पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इसे अर्धफालक-सम्प्रदाय का माना है, किन्तु इस सम्प्रदाय के अस्तित्व का दसवीं शती के पूर्व का कोई भी साहित्यिक या अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है। पं० नाथूराम जी प्रेमी के अनुसार ऐसा कोई सम्प्रदाय ही नहीं था। यह मात्र संघभेद के पूर्व की स्थिति है।"(जै.ध.या.स./ पृ.१५-१६)।
वे आगे भी लिखते हैं-"ईसा की प्रथम-दूसरी शती में निर्ग्रन्थपरम्परा के मुनियों में वस्त्रादि उपकरणों की स्थिति क्या थी, इसका पुरातात्त्विक प्रमाण हमें इसी काल के मथुरा के अंकनों में मिलता है। --- मुनियों के जो अंकन हैं, उनमें उनके हाथ में मुखवस्त्रिका/वस्त्रखण्ड तथा कलाई पर तह किया हुआ कम्बल प्रदर्शित है, जिससे किन्हीं अंकनों में उनकी नग्नता छिप गई है और किन्हीं में वह नहीं भी छिपी है। किन्तु कोई भी मुनि वस्त्रधारण किये हुए प्रदर्शित नहीं है। अभिलेखों में इन मुनियों के नाम, गण, शाखा, कुल आदि का जो उल्लेख है, उनकी पुष्टि कल्पसूत्र-पट्टावली से होती है। अतः स्पष्ट है कि ये अंकन उत्तर भारत में सचेल और अचेल परम्परा के विभाजन के पूर्व की स्थिति के सूचक हैं।" (जै.ध.या.स./ पृ.४७२)।
डॉक्टर सा० का यह कथन प्रमाणविरुद्ध है। इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं
१. अचेलपरम्परा के विभाजन से सचेलपरम्परा की उत्पत्ति तो जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् ही हो गयी थी। (देखिये, षष्ठ अध्याय)। वीर निर्वाण सं० ६०९ (ई० सन् ८२) में जिन आर्यकृष्ण के संघ में बोटिक शिवभूति ने दीक्षा ग्रहण की थी, वह श्वेताम्बरसंघ ही था, क्योंकि उस संघ के सभी साधु चौदह उपकरणधारी स्थविरकल्पिक थे। उस समय श्वेताम्बरग्रन्थों में वर्णित जिनकल्पिक साधुओं का अस्तित्व नहीं था, इसीलिए तो आर्यकृष्ण शिवभूति से यह कह सके कि जिनकल्प का विच्छेद हो चुका है। इसके अतिरिक्त अशोककालीन बौद्धग्रन्थ अपदान में श्वेतवस्त्रधारी साधुओं के सम्प्रदाय का उल्लेख है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि मथुरा के कुषाणकालीन
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