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________________ अ० १ काल्पनिक सामग्री से निर्मित तर्कप्रासाद / १३ २० दिगम्बरग्रन्थों में यापनीयमत-विरुद्ध कथनों के प्रक्षेप की कल्पना दिगम्बरग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का रास्ता साफ करने के लिए मान्य ग्रन्थ-लेखक ने चौथी कल्पना यह की है कि 'तिलोयपण्णत्ति' आदि ग्रन्थों में जो यापनीयमत-विरोधी कथन उपलब्ध होते हैं, वे प्रक्षिप्त हैं । लेखक की यह कल्पना अराजकता मचा देनेवाली है। इस तरह तो किसी भी सम्प्रदाय के ग्रन्थ को किसी भी अन्य सम्प्रदाय का सिद्ध किया जा सकता है। श्वेताम्बर - आगमों के दिगम्बरमतविरोधी अंशों को प्रक्षिप्त मानकर उन्हें दिगम्बरपरम्परा का सिद्ध किया जा सकता है और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के श्वेताम्बरमत-विरोधी कथनों को प्रक्षिप्त कहकर उन्हें श्वेताम्बरग्रन्थ घोषित किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त अन्य मिथ्यामतों की भी कल्पना की गई है, जिनका निर्देश यथास्थान किया जायेगा । २१ स्वाभीष्ट कल्पित- शब्दादि का आरोपण उक्त ग्रन्थ-लेखक महोदय ने दिगम्बरग्रन्थों में प्ररूपित मौलिक शब्द, अर्थ और लक्षण को अमान्य कर उनके स्थान में स्वाभीष्ट कल्पित शब्द, अर्थ और लक्षण का आरोपण करके भी स्वाभीष्ट की सिद्धि का प्रयत्न किया है । यथा Jain Education International १. कल्पित शब्द- गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि नामों के प्रयोग को गलत कहकर कल्पना की गई है कि वे वस्तुतः श्वेताम्बर - स्थविरावलियों में उल्लिखित गुणन्धर, वज्रसेन, पुसगिरि और भूतदिन्न नाम हैं, इसलिए वे दिगम्बराचार्यों के नाम न होकर उत्तरभारत के सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ- संघ के ( जिससे उन्होंने श्वेताम्बरों और यापनीयों की उत्पत्ति मानी है) आचार्यों के नाम हैं। अतः उनके द्वारा रचित कसायपाहुड और षट्खण्डागम ग्रन्थ भी उसी परम्परा के हैं, दिगम्बरपरम्परा के नहीं । २. कल्पित अर्थ - 'आर्य' और 'यति' शब्दों को यापनीय - आचार्यों की उपाधि मान कर शिवार्य और यतिवृषभ को यापनीय आचार्य मान लिया गया है। अपराजितसूरि ने अपवादलिंग का अर्थ 'गृहस्थलिंग' किया है। उसे अस्वीकार कर उसका 'सवस्त्र मुनिलिंग' अर्थ कल्पित किया गया है, और इस कल्पित अर्थ को हेतु बनाकर 'भगवती - आराधना' को सवस्त्रमुक्ति का समर्थक यापनीयग्रन्थ घोषित कर दिया गया है। जो 'अनुयोगद्वार' शब्द 'निरूपणद्वार' के अर्थ में प्रयुक्त है, उसके विषय में यह कल्पना कर ली गयी है कि वह 'अनुयोगद्वारसूत्र' नामक श्वेताम्बरग्रन्थ का वाचक है, अतः For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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