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________________ पूर्व मध्यकालीन युग भारतीय तत्त्वज्ञानका इतिहास अभी सर्वथा अपूर्ण है । भारतके बौद्धिक जीवनका संभवतः यह सर्वाधिक सुफल युग था । इसी युगमें भारतीय संस्कृतिकी अन्य शाखाओंकी भाँति उच्चकोटिके तत्त्वज्ञान तथा तर्कशास्त्रका प्रादुर्भाव एवं विकास हुआ । यह काल मुसलमानोंके आक्रमणके प्रायः एक सहस्र वर्ष पूर्वका है । इसी कालमें वैदिक परम्परा के न्याय-वैशेषिक, मीमांसा, वेदान्त, व्याकरण तथा आगम आदि विषयोंके बहुश्रुत लेखकों की तरह बौद्ध एवं जैन परम्परामें अत्युत्कृष्ट तत्त्वज्ञानी लेखक भी उत्पन्न हुए थे ! किन्तु उस काल अनेक श्रेष्ठ ग्रन्थ प्रायः नष्ट हो गये माने जाते हैं, फिर भी कुछ आधुनिक विद्वानोंके थक परिश्रम एवं सराहनीय अध्यवसायसे इस नष्टप्राय बहुमूल्य सामग्रीका पुनरुद्धार हुआ है तथा वह फिर हमारे सामने आई है । एतदर्थ हम उन परिश्रमी विद्वानोंके ऋणी 1 संस्कृत महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के डॉ० महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य, एम० ए०, पीएच० डी० इन्हीं उत्कृष्ट विद्वानों की श्रेणी में हैं, और मैं प्राचीन जैन दर्शन के क्षेत्रमें उनके विलक्षण कार्य एवं असाधारण सफलता के लिए उन्हें बधाई देता हूँ। उन्होंने प्रमुख जैन तार्किक प्राचार्य कलंक के लुप्त ग्रंथ 'सिद्धिविनिश्चय' और उसकी स्ववृत्तिका उद्धार तथा आचार्य अनन्तवीर्यकी टीकाके साथ उसका समालोचनात्मक सम्पादन करके न केवल जैन दर्शनकी महती सेवा को है वरन् मध्यकालीन समग्र भारतीय दर्शनका बड़ा उपकार किया है। अकलंकदेवका मूल सिद्धिविविश्चय एवं उसकी स्ववृत्ति अप्राप्य है, केवल उसकी टीकाकी एक पाण्डुलिपिके आधार पर डॉ० जैनने इस अमूल्य ग्रन्थका पुनर्निर्माण किया है, यत्र तत्र अन्य साधनों का भी उपयोग किया है । इस कार्यके सम्पादन में जो महान् प्रयत्न एवं परिश्रम निहित है, उसका केवल अनुमान ही किया जा सकता है । हमें परम हर्ष है कि उनकी यह दीर्घकालिक साधना सफल हुई, जिसके परिणामस्वरूप एक अत्युत्तम ग्रन्थका बड़ा शोधपूर्ण संस्करण प्राप्त हुआ है । इस ग्रन्थ में सिद्धिविनिश्चय मूल, उसकी स्ववृत्ति तथा अनन्तवीर्य की टीका के अतिरिक्त हिन्दी ( १६४ पृ० ) और अंग्रेजी ( ११६ पृ० ) में एक सुविस्तृत प्रस्तावना लिखी गई है और साथ-साथ तुलनात्मक संस्कृत 'आलोक' टिप्पण भी दिये गये हैं । इतने बड़े ग्रन्थमें अशुद्धिका सर्वथा अभाव होना तो संभव नहीं किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि संपादकने अकलंकदेव के इस महान् ग्रन्थका प्रायः शुद्ध एवं सुपठ संस्करण प्रस्तुत किया है, जिसके अनुशीलन से आगे के शोधकार्य में बड़ी सहायता मिलेगी । २ ए, सिगरा वाराणसी } प्रा क थ न [ १ ] Jain Education International गोपीनाथ कविराज [ महामहोपाध्याय, एम० ए०, डी० लिट्० भूतपूर्वं प्रिन्सिपल, गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, वाराणसी ] For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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