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________________ १५८ प्रस्तावना आदि व्यवहार विच्छिन्न हो जायँगे । जो करेगा उसके भोगनेका क्रम ही नहीं रहेगा । नित्यपक्षमें कर्तृत्व नहीं बनता तो अनित्य पक्षमें करनेवाला अन्य और भोगनेवाला अन्य होता है। उपादान-उपादेयभावमूलक कार्यकारणभाव भी इस पक्षमें नहीं बन सकेगा | अतः समस्त लोकव्यवहारलोक-परलोक तथा कार्यकारणभाव आदिकी सुव्यवस्थाके लिये पदार्थों में परिवर्तनके साथ-ही-साथ उसकी मौलिकता और अनादि अनन्तरूप द्रव्यत्वका आधारधूत ध्रुवत्व भी स्वीकार करना ही चाहिये। इसके माने बिना द्रव्यका मौलिकत्व सुरक्षित नहीं रह सकता । अतः प्रत्येक द्रव्य अपनी अनादि अनन्त धारामें प्रतिक्षण सदृश-विसदृश अल्पसदृश अर्धसदृश आदि अनेकरूप परिणमन करता हुआ भी कभी समाप्त नहीं होता, उसका समूल उच्छेद या विनाश नहीं होता । आत्माको मोक्ष हो जानेपर भी उसकी समाप्ति नहीं होती किन्तु वह अपने शुद्धतम स्वरूपमें स्थिर हो जाता है। उस समय उसमें वैभाविक परिणमन नहीं होकर द्रव्यगत उत्पाद व्यय स्वभावके कारण स्वभावमूलक सदृश परिणमन सदा होता रहता है । कभी भी यह परिणमनचक्र रुकता नहीं है और न कभी कोई भी द्रव्य समाप्त ही हो सकता है। अतः प्रत्येक द्रव्य नित्यानित्यात्मक है। हम स्वयं अपनी बाल युवा वृद्ध आदि अवस्थाओं में बदल रहे हैं फिर भी हमारा एक ऐसा अस्तित्व तो है ही जो इन सब परिवर्तनोंमें हमारी एकरूपता रखता है। वस्तुस्थिति जब इस तरह परिणामीनित्यकी है तब यह शंका 'जो नित्य है वह अनित्य कैसा ? निर्मूल है। क्योंकि परिवर्तनोंके आधारभूत पदार्थकी सन्तानपरम्परा उसके अनाद्यनन्त सत्त्वके बिना बन नहीं सकती। यही उसकी नित्यता है जो अनन्त परिवर्तनोंके बावजूद भी वह समाप्त नहीं होता और अपने अतीतके संस्कारोंको लेता छोड़ता वर्तमान तक आता है और अपने भविष्यके एक-एक क्षणको वर्तमान बनाता हुआ उन्हें अतीतके गह्वरमें ढकेलता जाता है, पर कभी स्वयं रुकता नहीं है । किसी ऐसे कालकी कल्पना नहीं जा सकती जो स्वयं अन्तिम हो, जिसके बाद दूसरा काल नहीं आनेवाला हो । कालकी तरह समस्त जगत्के अणु-परमाणु चेतन आदिमेंसे कोई एक या सभी कभी निर्मूल समाप्त हो जायगे ऐसी कल्पना ही नहीं होती। यह कोई बुद्धिकी सीमा परेकी बात नहीं है । बुद्धि अमुक क्षणमें अमुक पदार्थका अमुक अवस्था होगी इस प्रकार परिवर्तनका विशेष रूप न भी जान सके पर इतना तो उसे स्पष्ट भान होता है कि पदार्थका भविष्यके प्रत्येक क्षणमें कोई-न-कोई परिवर्तन अवश्य होगा। जब द्रव्य अपनेमें मौलिक है तब उसकी समाप्ति यानी समूल नाशका प्रश्न ही नहीं है। अतः पदार्थमात्र चाहे वह चेतन हो या अचेतन परिणामी-नित्य है। वह प्रतिक्षण त्रिलक्षण है। हर समय एक पर्याय उसकी होगी। वह अतीत पर्यायका नाश कर जिस प्रकार स्वयं अस्तित्वमें आई है उसी तरह उत्तर पर्यायको उत्पन्न कर स्वयं नष्ट हो जायगी। अतीतका व्यय वर्तमानका उत्पाद और दोनोंमें द्रव्यगत ध्रुवता है ही। वह त्रयात्मकता वस्तुकी जान है । इसीको स्वामी समन्तभद्र तथा भट्ट कुमारिलने लौकिक दृष्टान्तसे इस प्रकार समझाया है कि सोनेके कलशको मिटाकर मुकुट बनाया गया तो कलशार्थीको शोक हुआ मुकुटाभिलाषीको हर्ष और सुवर्णार्थीको माध्यस्थ्य भाव रहा । कलशार्थीको शोक कलशनाशके कारण हुआ मुकुटाभिलाषीको हर्ष मुकुटके उत्पादके कारण और सुवर्णार्थीकी तटस्थता दोनों दशाओंमें सुवर्णके बने (१) "घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥"-आप्तमी० श्लो० ५९ । "वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः । हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ॥ न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ॥"-मी० श्लो० पृ० ६१९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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