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________________ १२६ प्रस्तावना सूक्ष्मतम संस्कार उत्पन्न होता है वह उतने काल तक झनझनाता या कड़कड़ाता रहता है। बीच में यदि कोई प्रतिकूल वायु आदि प्रतिबन्धक कारण आ जाते हैं तो उसकी प्रक्रिया रुक जाती है। वैशेषिक शब्दको आकाशका गुण मानते हैं। आकाश नित्य एक और अमूर्त द्रव्य है। अतः उसमें यह विभेद करना अशक्य है कि अमुक स्थानमें ही अमुकरूप में शब्द उत्पन्न हो अमुक स्थान में या अमुक रूपमें नहीं। एकद्रव्य होनेसे सर्वत्र उसकी उत्पत्ति होनी चाहिये । आजके विज्ञानने रेडियो आदि यन्त्रों द्वारा शब्दोंको पकडकर और उसे इष्ट स्थानमें भेजकर उसकी पौद्गलिकता प्रयोगसे सिद्ध कर दी है। चूँकि शब्द पुद्गलसे ग्रहण किया जाता है, पुद्गलसे धारण किया जाता है, पुद्गलसे रुकता है, पुद्गलको रोकता है. पद्गल कान आदिके पर्दोको फाड देता है और पौद्गलिक वातावरणमें अनुकम्पन पैदा करता है अतः वह पौद्गगलिक है। स्कन्धोंके परस्पर संयोग संघर्ष और विभागसे शब्द उत्पन्न होता है । पौद्गलिक जिह्वा तालु आदिके संयोगसे नाना प्रकारके भाषात्मक शब्दोंकी उत्पत्ति हमारे प्रत्यक्षसे ही सिद्ध है। तात्पर्य यह कि शब्दके उपादान और निमित्त दोनों ही कारण चूँकि पौद्गलिक हैं अतः वह पौद्गलिक ही हो सकता है । मीमांसक शब्दको नित्य मानते है। उसका प्रधान कारण है वेदको नित्य और अपौरुषेय मानना । यदि शब्द नित्य और व्यापक हों; तो व्यजंक वायुसे एक जगह उसकी अभिव्यक्ति होनेपर सभी जगह सभी वर्णों की अभिव्यक्ति होनेसे कोलाहल मच जायगा। एक जगह 'ग' के प्रकट होते ही सर्वत्र उसकी अभिव्यक्ति होनी चाहिए आदि दूषण इस पक्षमें आते हैं । शब्दका अमुक समयतक सुनाई देना उसकी अनित्यता का खासा प्रमाण है। शब्द जगत्में भरे हुए गतिशील पुद्गलस्कन्धोंमें उत्पन्न होता है और चारों ओर वातावरणमें फैलता है यानी वातावरणको, जो कि पौद्गलिक है, शब्दायमान करता है। इसमें जो शब्द जिसके श्रोत्रको प्राप्त होता है वह उसके द्वारा सुन लिया जाता है। इसमें जिस प्रकारका संकेत गृहीत होता है उसी । या उस जैसा दूसरा शब्द अर्थबोध करा देता है। जिसमें संकेत ग्रहण किया है उसीसे अर्थबोध करनेका नियम यदि माना जाय तो जिस महानसीय धूममें अग्निकी व्याप्ति गृहीत हुई है उसीसे अग्निका अनुमान होना चाहिए तत्सदृश पर्वतीय धूमसे नहीं। इस तरह समस्त अनुमानादि व्यवहारोंका उच्छेद ही हो जायगा। शब्द पर्याय अनित्य होकर भी संकेतके द्वारा अपने सदृश शब्दोंसे अर्थप्रतीति करा सकती है । इस तरह मूर्तिमान् पुद्गलोंसे उत्पत्ति ग्रहण अवरोध और प्रतिघात आदिको प्राप्त होनेवाला शब्द निश्चयतः पौद्गलिक है । उसका रूप गुण चूँकि अनुद्भूत है अतः पौद्गलिक होनेपर भी वह आँखसे नहीं दिखाई देता । सांख्य शब्दका आविर्भाव नित्य अमूर्त प्रकृतिमें मानता है। इसमें वेही दूषण हैं जो वैशेषिकके नित्य आकाशमें शब्दोत्पत्ति माननेमें आते हैं। अमूर्त प्रकृतिका गुण मूर्त इन्द्रियोंसे कैसे गृहीत हो सकता है आदि। आगम-श्रुत मतिज्ञानके बाद जिस दूसरे ज्ञानका परोक्षरूपसे वर्णन मिलता है, वह है श्रुतज्ञान । परोक्ष-प्रमाणमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये मतिज्ञानकी पर्यायें हैं जो मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रकट । श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे श्रत प्रकट होता है। उसका वर्णन सिद्धान्त आगम ग्रन्थों में भगवान् तीर्थङ्करकी पवित्र वाणीके रूपमें पाया जाता है। तीर्थङ्कर जिस अर्थको अपनी दिव्यध्वनिसे प्रकाशित करते हैं, उसका द्वादशांगरूपमें ग्रथन गणधरोंके द्वारा किया जाता है । यह श्रुत अंगप्रविष्ट कहा जाता है। जो श्रुत अन्य आरातीय शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा रचा जाता है, वह अंगबाह्य श्रुत है । अंगप्रविष्ट श्रुतके आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतकृतदश, अनुत्तरीपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ये बारह भेद हैं। अंगबाह्यश्रत कालिक उत्कालिक आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है । यह वर्णन आगमिक दृष्टिसे है। जैन परम्परामें श्रुतप्रमाणके नामसे इन्हीं द्वादशांग और द्वादशांगानुसारी अन्य शास्त्रोंको आगम या श्रुतकी मर्यादामें लिया जाता है । इसके मूलक" तीर्थङ्कर हैं और उत्तरकर्ता उनके साक्षात् शिष्य गणधर तथा उत्तरोत्तर कर्ता प्रशिष्य आदि होती है। श्रुतगाना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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