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________________ १२२ प्रस्तावना विमान स्थानमें संधायसंभाषा और विग्रह्य सम्भाषा ये दो भेद उक्त वाद और जल्प वितण्डाके अर्थमें ही आये हैं । यद्यपि नैयायिकने छल आदिको असद् उत्तर माना है और साधारण अवस्थामें उसका निषेध किया है, परन्तु किसी भी प्रयोजनसे जब एकबार छल आदि घुस गये तो फिर जय पराजयके क्षेत्रमें उन्हींका राज्य हो गया। बौद्ध परम्पराके प्राचीन उपायहृदय और तर्कशास्त्र आदिमें छलादिके प्रयोगका समर्थन देखा जाता है किन्तु आचार्य धर्मकीर्तिने इसे सत्य और अहिंसाकी दृष्टि से उचित न समझकर अपने वादन्याय ग्रन्थ (पृ०७१) में उनका प्रयोग सर्वथा अमान्य और अन्याय्य ठहराया है। इसका भी कारण यह है कि बौद्ध परम्परामें धर्मरक्षाके साथ संघरक्षाका भी प्रमुख स्थान है । उनके त्रिशरणमें बुद्ध और धर्मकी शरण जानेके साथ ही साथ संघकी शरणमें भी जानेकी प्रतिज्ञा की जाती है। जब कि जैन परम्परामें संघशरणका कोई स्थान नहीं है । इनके चतुःशरण में अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्मकी शरणको ही प्राप्त होना बताया है । इसका स्पष्ट अर्थ है कि संघ रक्षा और संघ प्रभावनाके उद्देश्यसे भी छलादि असद् उपायोंका अवलम्बन करना जो प्राचीन बौद्ध तर्क ग्रंथों में घुस गया है, उसमें सत्य और अहिंसाकी धर्मदृष्टि गौण तो अवश्य हो गई है । धर्म कीर्तिने इस असंगतिको समझा, और हर हालतमें छल जाति आदि असत् प्रयोगोंको वर्जनीय ही बताया है। जैन तार्किक पहलेसे ही सत्य और अहिंसारूप धर्मकी रक्षाके लिए प्राणोंकी बाजी लगानेको सदा प्रस्तुत रहे हैं। उनके संयम और त्यागकी परम्परा साध्यकी तरह साधनोंकी पवित्रतापर भी प्रथमसे ही भार देती आयी है। यही कारण है कि जैन दर्शनके प्राचीन ग्रन्थोंमें कहीं पर भी किसी भी रूपमें छलादिके प्रयोगका आपवादिक समर्थन भी नहीं देखा जाता । इसके एक ही अपवाद हैं, अठारहवीं सदीके आचार्य यशोविजय । जिन्होंने वाद द्वात्रिंशतिकामे प्राचीन बौद्ध तार्किकोंकी तरह शासनप्रभावनाके मोहमें पड़कर अमुक देशादिमें आपवादिक छलादिके प्रयोगको भी उचित मान लिया है। अकलङ्कदेवने सत्य और अहिंसाकी दृष्टिसे छलादिरूप असत् उत्तरोंके प्रयोगको सर्वथा अन्याय्य और परिवर्जनीय माना है। अतः उनकी दृष्टि से वाद और जल्पमें कोई भेद नहीं रह जाता। इसलिये वे में समर्थवचनको वाद' कहकर भी कहीं वादके स्थानमें जल्प शब्दका भी प्रयोग कर देते हैं। उन्होंने बताया है कि वादी और प्रतिवादियों के मध्यस्थोंके समक्ष स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण रूप वचनको वाद कहते हैं। वितण्डा वादाभास है, इसमें वादी अपना पक्षस्थापन नहीं करके मात्र खण्डन ही खण्डन करता है । यह सर्वथा त्याज्य है । न्यायदीपिकामें (पृष्ठ ७९) तत्त्वनिर्णयके विशुद्ध प्रयोजनसे जय पराजयकी भावनासे रहित गुरु शिष्य या वीतरागी विद्वानोंमें तत्त्वनिर्णयतक चलनेवाले वचनव्यवहारको वीतराग कथा कहा है और वादी और प्रतिवादीमें स्वमत-स्थापनके लिये जयपराजयपर्यन्त चलनेवाले वचनव्यवहारको विजिगीषु कथा कहा है। वीतराग कथा सभापति और सभ्योंके अभावमें भी चलती है, जबकि विजिगीषु कथामें वादी प्रतिवादी के साथ सभ्य और सभापतिका होना भी आवश्यक है । सभापतिके बिना जय और पराजयका निर्णय कौन (१) "बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्म सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि ।" (२) "चत्तारि सरणं पव्वजामि, अरिहंते सरणं पव्वजामि, सिद्धे सरणं पवजामि, साहू सरणं पव्वजामि, केवालिपण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि" चत्तारि दण्डक । (३) “अयमेव विधेयस्तत्तत्त्वज्ञेन तपस्विना । देशाद्यपेक्षयाऽन्योपि विज्ञाय गुरुलाघवम् ॥"-द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशतिका यशो०८६। (४) देखो सिद्धिविनिश्चय जल्पसिद्धि परि० ५। (५) "समर्थवचनं वादः।"-प्रमाणसं० श्लो० ५१ । (६) "समर्थवचनं जल्पं चतुरङ्ग विदुर्बुधाः । पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना ॥"-सिद्धिवि० ५।२। "तदाभासो वितण्डादिरभ्युपेतान्यस्थितेः"-न्यायवि० २।३८४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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