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प्रस्तावना
आपत्ति नहीं है पर धर्मका ज्ञान केवल वेदके द्वारा ही होगा, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से नहीं। इस तरह वेदको वेदके द्वारा तथा धर्मातिरिक्त शेष पदार्थोंको यथासम्भव अनुमानादि प्रमाणोंसे जानकर यदि कोई पुरुष टोटलमें सर्वज्ञ बनता है तब भी कोई विरोध नहीं है।
. दूसरा पक्ष बौद्धों का है। ये बुद्धको धर्म-चतुरार्य सत्यका प्रत्यक्षज्ञाता मानते हैं। इनका कहना है किबुद्धने अपने भावर ज्ञानके द्वारा दुःख, दुःखके कारण, निरोध-मोक्ष, मार्ग-मोक्षके उपाय इस चतुरार्यसत्य धर्मका प्रत्यक्ष दर्शन किया है। अतः धर्मके विषयमें धर्मद्रष्टा सुगत ही अन्तिम प्रमाण हैं। वे करुणा करके कषाय ज्वालासे झुलसे हुए संसारी जीवोंके उद्धारकी भावनासे उपदेश देते हैं। इस मतके समर्थक धर्मकीर्तिने लिखा हैं। कि-हम 'संसारके समस्त पदार्थोंका कोई पुरुष साक्षात्कार करता है या नहीं' इस निरर्थक बातके झगड़े में नहीं पड़ना चाहते, हम तो यह जानना चाहते हैं कि उसने इष्ट तत्त्व-धर्मको जाना है कि नहीं । मोक्षमार्गके अनुपयोगी दुनियाभरके कीड़े-मकोड़े आदि की संख्याके परिज्ञानका भला मोक्षमार्गसे क्या सम्बन्ध है ? धर्मकीर्ति सर्वज्ञताका सिद्धान्ततः विरोध नहीं करके उसे निरर्थक अवश्य बतलाते हैं। वे सर्वज्ञताके समर्थकोंसे कहते हैं कि मीमांसकोंके सामने सर्वज्ञता-त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थोंका प्रत्यक्षसे ज्ञान-पर जोर क्यों देते हो ? असली विवाद तो धर्मज्ञतामें है कि धर्मके विषयमें धर्मके साक्षात द्रष्टाको प्रमाण माना जाय या वेदको । उस धर्मके साक्षात्कारके लिए धर्मकीर्तिने आत्मा-ज्ञानप्रवाहसे दोषोंका अत्यन्तोच्छेद माना और उसके साधन नैरात्म्यभावना आदि बताये हैं। तात्पर्य यह कि-जहाँ कुमारिलने प्रत्यक्षसे धर्मज्ञताका निषेध करके धर्मके विषयमें वेदका ही अबाधित अधिकार स्वीकार किया है, वहाँ धर्मकीर्तिने प्रत्यक्षसे ही धर्ममोक्षमार्गका साक्षात्कार मानकर प्रत्यक्षके द्वारा होनेवाली धर्मज्ञताका जोरोंसे समर्थन किया है।
धर्मकीर्तिके टीकाकार प्रज्ञाकर गुप्तने सुगतको धर्मज्ञके साथ ही साथ सर्वज्ञ-त्रिकालवी यावत्पदार्थोंका ज्ञाता भी सिद्ध किया है और लिखा है कि सुगतकी तरह अन्य योगी भी सर्वज्ञ हो सकते हैं, यदि वे अपनी साधक अवस्थामें रागादिनिर्मुक्तिकी तरह सर्वज्ञताके लिए भी यत्न करें । जिनने वीतरागता प्राप्त कर ली है: वे चाहें तो थोड़े से प्रयत्न से ही सर्वज्ञ बन सकते हैं। शान्तरक्षित भी इसी तरह धर्मज्ञताके साथ सर्वज्ञता सिद्ध करते हैं और सर्वज्ञताको वे शक्ति रूपसे सभी वीतरागोंमें मानते हैं। कोई भी वीतराग जब चाहे तब जिस किसी भी वस्तुका साक्षात्कार कर सकता है।
योग-दर्शन और वैशेषिक दर्शनमें यह सर्वज्ञता अणिमा आदि ऋद्धियों की तरह एक विभति है जो सभी वीतरागोंके लिए अवश्य ही प्राप्तव्य नहीं है । हाँ, जो इसकी साधना करेगा उसे यह प्राप्त हो सकती है।
"जैन दार्शनिकोंने प्रारम्भसे ही त्रिकालत्रिलोकवर्ती यावज्ज्ञेयों के प्रत्यक्ष दर्शनके अर्थमें सर्वज्ञता मानी (१) "तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् ।
कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥३३॥ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु ।
प्रमाणं दूरदर्शी चेदेत गृद्धानुपास्महे ॥३५॥"-प्रमाणवा०१॥३३-३५। (२) "ततोऽस्य वीतरागत्वे सर्वार्थज्ञानसंभवः ।
समाहितस्य सकलं चकास्तीति विनिश्चितम् । सर्वेषां वीतरागाणामेतत् कस्मान्न विद्यते ? रागादिक्षयमाने हि तैर्यत्नस्य प्रवर्तनात् ॥... पुनः कालान्तरे तेषां सर्वज्ञगुणरागिणाम् ।
अल्पयत्नेन सर्वज्ञत्वसिद्धिरवारिता ॥"-प्र. वार्तिकालं. पृ. ३२९ । (३) “यद्यदिच्छति बोर्बु वा तत्तद्वेत्ति नियोगतः ।
शक्तिरेवंविधा ह्यस्य प्रहीणावरणो ह्यसौ ॥"-तत्त्वसं० का०३६२८ ।
(४) "सई भगवं उप्पण्णणाणदरिसी''सव्वलोए सव्वजीवे :सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति"-षटखं० पयडि. सू०७८ ।
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