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________________ प्रस्तावना विशेषमें किसीमें कोई गुण उद्भूत अल्पोद्भूत या अनुद्भूत रहता है तो किसीमें कोई गुण । पर इससे उस समय उसमें उस गुणका अभाव नहीं हो जाता । यह उद्भव और अभिभव या उत्पाद और विनाशकी प्रक्रिया निरपवाद रूपसे प्रतिक्षण चालू रहती है। इस सामुदायिक बन्धन दशामें उस पिण्डके रूप रस गन्ध और स्पर्श आदि गुण वे ही ग्राह्य होते हैं जिनमें सम्मिलित परमाणुओंकी बहुमति होती है। यह भी संभव है कि घड़ेके एक भागके परमाणुओंमें लाल रूप प्रकट हो और दूसरी ओर काला या पीला । इसी तरह रस और गन्ध आदिकी भी विचित्रता हो सकती है। और इसमें आश्चर्यकी कोई खास बात नहीं है; क्योंकि यह तो उस पुद्गलके स्वभाव-भूत परिणमनकी योग्यता और विकासकी सामग्रीके वैचित्र्यपर निर्भर करता है कि कब किसका कहाँ कैसा परिणमन हो। तात्पर्य यह कि जैनदर्शन न तो अतिरिक्त अवयवीद्रव्य मानता है और न घटादिके प्रतिभासको भ्रम मानता है किन्तु वास्तविक परमाणुओंकी वास्तविक सम्बद्ध पर्यायमें ही वास्तविक प्रतिभास और वास्तविक व्यवहार मानता है। वह सर्वतः वास्तववादी है। ऐसे पदार्थको वह शब्द से अछूता भी नहीं रखना चाहता किन्तु पदार्थमें वाच्यशक्ति और शब्दमें वाचकशक्ति मानता है और उनका वास्तविक वाच्यवाचक सम्बन्ध भी स्वीकार करता है। उसे यह डर नहीं है कि यदि शब्दका अर्थसे सम्बन्ध मान लिया तो कोई शब्द असत्य नहीं हो पायगा। जिसका वाच्यभूत अर्थ यथावत् उपलब्ध हो वह सत्य और जिसका उपलब्ध न हो वह असत्य, यह सत्यासत्यकी कसौटी खुली हुई है। जो इसमें जितना खरा उतरे उसमें उतनी ही मात्रामें सत्यता और असत्यता होगी। इस तरह प्रमेयकी वास्तविक स्थिति होनेपर इन्द्रियजन्य ज्ञानको जो संव्यवहारप्रत्यक्ष कहा गया है उसका अपना दूसरा ही सैद्धान्तिक कारण है । जैनपरम्परामें जो ज्ञान आत्ममात्रसापेक्ष होता है, पर की अपेक्षा नहीं रखता उसे 'प्रत्यक्ष संज्ञा दी है। इन्द्रियाँ और मन पराश्रित साधन हैं, अतः जो ज्ञान इनके अधीन है वह वस्तुतः स्वावलम्बी प्रत्यक्षकी मर्यादामें नहीं आ सकता। यह इनकी अपनी प्राचीन व्याख्या है। परन्तु लोकव्यवहारमें तो इन्द्रियजन्यज्ञान स्पष्ट और प्रायः सर्वसम्मत रूपसे प्रत्यक्ष कहा जाता है तब इस असंगतिका समाधान करनेके लिये संव्यवहार प्रत्यक्षका अवतार किया गया। यानी शास्त्रीय व्यवस्थामें इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष होकर भी लोकव्यवहारमें वैशद्यांशका सद्भाव होनेसे प्रत्यक्ष कहा गया । संव्यवहारका अर्थ वेदान्तीकी अविद्या या माया और विज्ञानाद्वैतवादीकी संवृति जैसा 'असद्भूत' नहीं है किन्तु यह तो केवल वास्तविक वर्गीकरणकी एक पद्धतिमात्र है। यहाँ इन्द्रियाँ भी सत्य हैं, पदार्थ भी सत्य है, उनका योग्यदेशावस्थिति रूप सम्बन्ध भी सत्य है और उनसे समुत्पन्न ज्ञान भी सत्य है । प्रश्न इतना ही था कि इस ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा जाय तो किस रूपमें कहा जाय। उसीका समाधान 'संव्यवहार प्रत्यक्ष से किया गया है। अवग्रहादि ज्ञान जिस अवग्रह ज्ञानसे प्रमाणकी सीमा प्रारम्भ होती है वह अपनेमें अवान्तरसामान्यसे विशिष्ट किसी विशेषांशका भी निश्चय रखता है । स्वांशके निश्चयका प्रमाणसे कोई सम्बन्ध नहीं है ; क्योंकि स्वसंवेदन ज्ञान सामान्यका धर्म है, वह प्रमाण और अप्रमाण सभी ज्ञानोंमें समान भावसे पाया जाता है । कोई भी ज्ञान ही वह वस्तुको विषय करनेवाला ही क्यों न हो यदि अध्यवसायात्मक या व्यवसायात्मक नहीं है तो वह अनध्यवसायकी तरह अकिञ्चित्कर ही होगा। अवग्रह ज्ञानमें 'पुरुषोऽयम्' रूपसे पुरुषत्व जातिवाले पुरुषका स्पष्ट निर्णय हो जानेपर ही उसमें विशेषांशकी जिज्ञासा संशय ईहा और विशेषांशका निर्णय यह ज्ञानधारा चलती है । इनमें ईहा ज्ञान ऐसा है जो विशेषांशके यथार्थ निर्णयमें सहायक होता है। ईहा संशयकी अवस्था र करके 'ऐसा होना चाहिए' इस प्रकारका निर्णयोन्मुख ज्ञान है। यह चेष्टाका पर्यायवाची नहीं है। इस अवाय ज्ञान तक चलनेवाली ज्ञानधारामें कोई ज्ञान न सर्वथा प्रमाणात्मक है और न सर्वथा फलात्मक ही । पूर्व पूर्व ज्ञान उत्तर उत्तरके प्रति साधकतम और परिणामी कारण होनेसे प्रमाण हैं और उत्तर उत्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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