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________________ ग्रन्थकार : अकलङ्कके ग्रन्थ ५. कविवर धनञ्जयके द्वारा नाममालामें 'प्रमाणमकलङ्कस्य' लिखकर अकलङ्कका स्मरण किया जाना । धनञ्जय की नाममालाका अवतरण धवला टीकामें है । अतः धनञ्जयका समय ई० ८१० है।' ६. जिनसेनके गुरु वीरसेनकी धवला टीका (ई० ८१६)में तत्त्वार्थवार्तिकके उद्धरण होना। ७. आदिपुराणमें जिनसेन द्वारा उनका स्मरण किया जाना । जिनसेनका समय ई० ७६० से ८१३ है। ८. हरिवंशपुराणके कर्ता पुन्नादृसंघीय जिनसेनके द्वारा वीरसेनकी कीर्तिको 'अकलङ्का' कहा जाना। इन्होंने शक ७०५ ई० ७८३ में हरिवंश पूर्ण किया था । ९. विद्यानन्द आचार्य द्वारा अकलङ्ककी अष्टशतीपर अष्टसहस्री टीकाका लिखा जाना। विद्यानन्दका समय ई० ७७५-८४० है। १७. शिलालेखों में अकलङ्कका स्मरण सुमतिके बाद आना । गुजरातके. राष्ट्रकूट कर्क सुवर्णका मल्लवादिके प्रशिष्य और सुमतिके शिष्य अपराजितको दिये गये दानका एक ताम्रपत्र शक संवत् ७४३ ई०८२१ का मिला है। तत्त्वसंग्रहमें सुमति दिगम्बरका मत आता है। तत्त्वसंग्रह पंजिकामें बताया है कि सुमति कुमारिलके आलोचनामात्र प्रत्यक्षका निराकरण करते हैं । अतः सुमतिका समय कुमारिल के बाद होना चाहिए । डा० भट्टाचार्यने सुमतिका समय ई० ७२० के आस-पास निर्धारित किया है। यदि ताम्रपत्रमें उल्लिखित सुमति ही तत्त्वसंग्रहकार द्वारा उल्लिखित सुमति हैं तो इनके समयकी संगति बैठानी होगी क्योंकि ताम्रपत्रके अनुसार सुमतिके शिष्य अपराजित ई० ८२१ में हैं और इस तरह गुरु शिष्य के समयमें १०० वर्षका अन्तर हो जाता है। प्रो० दलसुख मालवणियाने इसका समाधान इस प्रकार किया है कि-"सुमतिकी ग्रन्थ रचनाका समय ई० ७४० के आसपास यदि माना जाय तो पूर्वोक्त असंगति नहीं होगी। शान्तरक्षितने तिब्बत जानेसे पूर्व ही तत्त्वसंग्रहकी रचना की है, अत एव वह ई० ७४५ के पूर्व रचा गया होगा; क्योंकि शान्तरक्षितने तिब्बत कर ई० ७४९ में विहारकी स्थापना की थी। सुमतिको यदि शान्तरक्षितका समवयस्क मान लिया जाय तो उनकी भी उत्तरावधि ई० ७६२ के आसपास होगी। ऐसी स्थितिमें सुमतिके शिष्य अपराजितकी सत्ता ई० ८२१ में होना असम्भव नहीं है ।" यह समाधान सयुक्तिक है । ऐसी दशामें सुमतिसे २-३ आचार्य बाद होनेवाले अकलङ्कका समय ई० ८ वीं का उत्तरार्ध ही सिद्ध होता है। इस तरह विप्रतिपत्तियोंका निराकरण तथा सुनिश्चित साधक प्रमाणोंके आधारसे अकलङ्कदेवका समय ई० ७२० से ७८० सिद्ध होता है । वे इस समय अवश्य रहे हैं, हो सकता है कुछ और भी जीवित रहे हों। अकलङ्कके ग्रन्थ ___ भट्टाकलङ्क षटतर्ककुशल और सकलसमयाभिज्ञ थे । उनके सिद्धान्तज्ञान अनेकान्तदृष्टि स्याद्वादभाषा और तर्कनैपुण्यके दर्शन उनके ग्रन्थों में पग-पगपर होते हैं । वे पहले समयदीपक ही रहे थे पीछे षटतर्कविबुध और वादीभसिंह या वादिसिंह बने थे । वे प्रथम जिनमतकुवलयशशाङ्क थे फिर शास्त्रविदग्रेसर हो मिथ्यामतान्धकारविभेदक प्रकाशपुञ्ज हुए थे। उनके इस स्वसाधक और परदूषक महान् व्यक्तित्व और बहश्रतत्व रूपके दर्शन उनके अतिगहन दुरवबोध और प्रौढ़ ग्रन्थोंमें होते हैं। तत्त्वार्थवार्तिकमें वे जितनी अतिशय (७) जैन सा० इ० पृ० १११। (२) पृ० ३७। (३) पृ० ३८ । (४) हरिवंशपु. १॥३९ । (५) पृ० ३९ । (६) पृ० ८। (७) धर्मोत्तरप्र. प्रस्ता० पृ० ५५ । (८) तत्त्वसं० पृ० ३७९, ३८२, ३८३, ३८९, ४९६ । (९) "तत्र सुमतिः कुमारिलायभिमतालोचनामात्रप्रत्यक्षविचारणार्थमाह"-तत्वसं० ५० पृ. ३७९ । (१०) तत्त्वसं० प्रस्ता० पृ० ९२ । (१६) धर्मोत्तरप्र० प्रस्ता० पू० ५५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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