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________________ ३८ प्रस्तावना "प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः । अयं वाक्यनयः तत्त्वार्थभाष्यगतः ।" - जयध० प्रथमभाग पृ० २१० । नयका यह लक्षण तत्त्वार्थवार्तिक ( १।३३ ) का है । इन्होंने धवलाटीकामें सिद्धिविनिश्चयका भी यह अवतरण लिया है किन्तु यह वाक्य प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयमें नहीं मिला । श्रीपाल ' - "सिद्धिविनिश्चये उक्तम् - अवधिविभङ्गयोरवधिदर्शनमेव ।” - धवलाटीका, वर्गणा खं० पु० १३ पृ० ३५६ । श्रीपाल वीरसेनके शिष्य थे । ये जिनसेन के सधर्मा या गुरुभाई थे। जिनसेनने इन्हें जयधवला टीकाका संपालक या पोषक कहा है और आदिपुराणमें इनके निर्मल गुणोंकी प्रशंसा की है । अतः ये जिनसेनके ज्येष्ठ सहचर हैं । जिनसेनका समय ई० ७६३-८४३ है । अतः इनका समय भी यही होगा । ये अपनी बाल्यावस्था में अकलङ्कके दर्शन कर सकते हैं । इन्होंने जिनसेनकी तरह अकलङ्क तत्त्वार्थ भाष्यका परिशीलन अवश्य किया होगा । जिनसेन जयधवला और महापुराण आदिके रचयिता जिनसेन वीरसेन के साक्षात् शिष्य थे । इन्होंने अकलङ्कक निर्मल गुणोंका स्मरण किया है । इनका समय ई० ७६३-८४३ है । ये भी अपनी बाल्यावस्था में अकलङ्क दर्शन कर सकते हैं । इन्होंने अपने गुरुकी तरह अकलङ्क देवके तत्त्वार्थभाष्यका परिशीलन किया था । ये अपने गुरुकी सिद्धान्तटीका में उनके सहायक थे । कुमारसेन जिनसेनने हरिवंश पुराण (शकसं० ७०५ ई० ७८३) में कुमारसेनका स्मरण इन शब्दों में किया है— " आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ॥” देवसेनके कथनानुसार वीरसेनके शिष्य विनयसेन, उनके शिष्य कुमारसेनने काष्ठासंघकी स्थापना की थी' । विनयसेनकी प्रेरणा से जिनसेनने पार्श्वाभ्युदयकी रचना की थी । आचार्य विद्यानन्द अपनी अष्टसहस्रीको कुमारसेनकी उक्तियोंसे वर्धमान बताते हैं । मल्लिषेण प्रशस्तिमें अकलङ्कदेवसे पहिले और सुमतिदेव के बाद एक कुमारसेनका उल्लेख इस प्रकार किया गया है "उदेत्य सम्यग्दिशि दक्षिणस्यां कुमारसेनो मुनिरस्तमापत् । तत्रैव चित्रं जकदेकभानोस्तिष्ठत्यसौ तस्य तथा प्रकाशः ॥ १४ ॥ " अतः अकलङ्क पूर्व में उल्लिखित कुमार सेनका समय भी अन्ततः ई० ७२०-८०० सिद्ध होता है । इनके अन्तिम समयमें विद्यानन्द इनकी उक्तियोंको सुन सकते हैं और उनसे अष्टसहस्रीको पुष्ट कर सकते हैं, (२) जैनसा० इ० पृ० १४० ॥ Jain Education International (१) जैनसा० इ० पृ० १२९ । (३) जैनसा० इ० पृ० १२९ । (४) "कष्टसहस्रीसिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् । शश्वदभीष्टसहस्त्रीं कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था ॥ " - अष्टसह० पृ० २९५ | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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