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प्रस्तावना
"प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः । अयं वाक्यनयः तत्त्वार्थभाष्यगतः ।"
- जयध० प्रथमभाग पृ० २१० ।
नयका यह लक्षण तत्त्वार्थवार्तिक ( १।३३ ) का है । इन्होंने धवलाटीकामें सिद्धिविनिश्चयका भी यह अवतरण लिया है
किन्तु यह वाक्य प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयमें नहीं मिला ।
श्रीपाल ' -
"सिद्धिविनिश्चये उक्तम् - अवधिविभङ्गयोरवधिदर्शनमेव ।” - धवलाटीका, वर्गणा खं० पु० १३ पृ० ३५६ ।
श्रीपाल वीरसेनके शिष्य थे । ये जिनसेन के सधर्मा या गुरुभाई थे। जिनसेनने इन्हें जयधवला टीकाका संपालक या पोषक कहा है और आदिपुराणमें इनके निर्मल गुणोंकी प्रशंसा की है । अतः ये जिनसेनके ज्येष्ठ सहचर हैं । जिनसेनका समय ई० ७६३-८४३ है । अतः इनका समय भी यही होगा । ये अपनी बाल्यावस्था में अकलङ्कके दर्शन कर सकते हैं । इन्होंने जिनसेनकी तरह अकलङ्क तत्त्वार्थ भाष्यका परिशीलन अवश्य किया होगा ।
जिनसेन
जयधवला और महापुराण आदिके रचयिता जिनसेन वीरसेन के साक्षात् शिष्य थे । इन्होंने अकलङ्कक निर्मल गुणोंका स्मरण किया है । इनका समय ई० ७६३-८४३ है । ये भी अपनी बाल्यावस्था में अकलङ्क दर्शन कर सकते हैं । इन्होंने अपने गुरुकी तरह अकलङ्क देवके तत्त्वार्थभाष्यका परिशीलन किया था । ये अपने गुरुकी सिद्धान्तटीका में उनके सहायक थे ।
कुमारसेन
जिनसेनने हरिवंश पुराण (शकसं० ७०५ ई० ७८३) में कुमारसेनका स्मरण इन शब्दों में किया है— " आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ॥”
देवसेनके कथनानुसार वीरसेनके शिष्य विनयसेन, उनके शिष्य कुमारसेनने काष्ठासंघकी स्थापना की थी' । विनयसेनकी प्रेरणा से जिनसेनने पार्श्वाभ्युदयकी रचना की थी ।
आचार्य विद्यानन्द अपनी अष्टसहस्रीको कुमारसेनकी उक्तियोंसे वर्धमान बताते हैं ।
मल्लिषेण प्रशस्तिमें अकलङ्कदेवसे पहिले और सुमतिदेव के बाद एक कुमारसेनका उल्लेख इस प्रकार किया गया है
"उदेत्य सम्यग्दिशि दक्षिणस्यां कुमारसेनो मुनिरस्तमापत् ।
तत्रैव चित्रं जकदेकभानोस्तिष्ठत्यसौ तस्य तथा प्रकाशः ॥ १४ ॥ "
अतः अकलङ्क पूर्व में उल्लिखित कुमार सेनका समय भी अन्ततः ई० ७२०-८०० सिद्ध होता है । इनके अन्तिम समयमें विद्यानन्द इनकी उक्तियोंको सुन सकते हैं और उनसे अष्टसहस्रीको पुष्ट कर सकते हैं,
(२) जैनसा० इ० पृ० १४० ॥
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(१) जैनसा० इ० पृ० १२९ । (३) जैनसा० इ० पृ० १२९ ।
(४) "कष्टसहस्रीसिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् ।
शश्वदभीष्टसहस्त्रीं कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था ॥ " - अष्टसह० पृ० २९५ |
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