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________________ प्रस्तावना (४) हुम्मच में पञ्चबस्तिके आँगनके एक संस्कृत कन्नडमय पाषाण' लेखमें एकसन्धि सुमतिदेवके बाद अकलङ्कदेवकी वादिसिंह और स्याद्वादामोघजिह्व रूपसे स्तुति की है।' यह लेख शक सं० ९९९ ई० १०७७ का है। (५) हुम्मचमें ही तोरणबागलिके दक्षिणी खम्भेमें उत्कीर्ण लेखमें सिंहनन्दि आचार्यके बाद अकलङ्कदेवका उल्लेख है । यह लेख भी ई० १०७७ का है । (६) हुम्मचमें ही मानस्तम्भके ऊपरं दक्षिणकी तरफ उत्कीर्ण लेखमें वादिराजकी स्तुतिके प्रसङ्गमें 'सदसि यदकलङ्कः' विशेषण दिया है । यह लेख भी ई १०७७ का है।' (७) कत्तिले बस्तीके द्वारेसे दक्षिणकी ओर एक पाषाण स्तम्भ लेखमें जिनचन्द्र मुनिको 'सकलसमयतकै च भट्टाकलङ्कः' कहा है । यह लेख लगभग ई० ११०० का है। (८) एरडुकटे वस्तिके पश्चिमकी ओर मण्डपमें स्तम्भपर उत्कीर्ण 'लेखमें मेघचन्द्र मुनिकी प्रशंसामें उन्हें षट्तोंमें अकलङ्कके समान विबुध कहा गया है। यह लेख शक सं० १०३७ ई० १११५ का है। (९) गन्धवारण बस्तीके प्रथममण्डपके स्तम्भ लेखमें भी इसी प्रकारका उल्लेख है। यह लेख शक सं० १०६८ ई० ११४६ का है । __ (१०) कल्लूरगुड्ड (शिमोगा) सिद्धेश्वर मन्दिरकी पूर्व दिशाके पाषाणपर उत्कीर्ण लेखमें गुणनन्दिदेवके बाद अकलङ्कदेवका षड्दर्शन विजेताके रूपमें उल्लेख है । यह लेख शक सं० १०४३ ई० ११२१ का है । (११) चल्लग्रामके बयिरे देव मन्दिरके पाषाण लेखमें एकसन्धि सुमति भट्टारकके बाद वादीभसिंह अकलङ्कदेवका उल्लेख है । यह लेख शक सं० १०४७ ई० ११२५ का है। (१२) पार्श्वनाथ वसतिके स्तम्भपर खुदी हुई मल्लिषेण प्रशस्तिमें अकलङ्कदेवके वादका विस्तृत वर्णन है । यह प्रशस्ति शक सं० १०५० ई० ११२८ की है । इसका विशेष वर्णन आगे किया जायगा। (१३)बेलूर सौम्यनायकी मन्दिरकी छतके पत्थरपर उत्कीर्ण लेख में सुमतिभट्टारकके बाद अकलङ्कदेवकी 'समयदीपक उन्मीलित दोष"रजनीचरबल"उद्बोधितभव्यकमल' आदि विशेषणोंसे स्तुति की है। यह लेख शकसं० १०५९ ई०११३७ का है। (१)जैनशि० द्वि. पृ० २८१ लेख नं० ११३। ए० क० भाग ८ नगर ता० नं० ३५ । (२) “राजन् बुद्धोऽप्यबुद्धः सुरगुरुरगुरुः पूरणोऽपूरणेच्छः, स्थाणुः स्थाणुस्त्वजोजोर्विरविरलघुर्माधवोऽमाधवस्तु । व्यासोऽप्यव्यासयुक्तः कणभुगकणभुग वागवागेव देवी, स्याद्वादामोघजिह्वे मयि विशति सति मण्डपं वादिसिंहे॥ य॥ एनिसिदकलङ्कदेवरवरि..." -वही पृ० २९४ । नशि.द्वि. पृ० ३०१,लेख नं० २१४। ए.क. भाग ८ नगर ता. नं. ३६ । . (४) वही पृ०३०६, लेख नं. २१५ । ए० क० भाग ८ नगर ता० नं. ३९ । (५)जैनशि० प्र० पृ० ११५, लेख नं ५५ (६९)। (६) जैनशि० प्र० पृ. ५८, लेख नं.४७ (१२७)। (७) "षटतष्वकलङ्कदेवविबुधः साक्षादयं भूतले।" -वही पृ० ६२ । (८) जैनशि० प्र० पृ० ७१, लेख नं० ५० (१४०)। जैनशि० द्वि० पृ० ४०८, लेख नं० २७७ । ए. क. भाग ७ शिमोगा नं. ४। (१०) जैनशि० प्र० पृ० ३९५, लेख नं. ४९३ । (११) जैनशि० प्र० पृ. १०१, लेख नं. ५४ (६७)। (१२) जैनशि० तु. पृ० १, लेख नं० ३०५। ए० क. भाग ५ बडुर ता० नं० १७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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