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________________ अध्याय-२ (ऋषभदेवबिंबं निःश्रेयसे कारितं बृहद्गच्छीय श्रीसंविग्नविहारि श्रीवर्धमानसूरिपादपद्मोप (सेवि) श्रीचकेश्वरसूरिभिः प्रतिष्ठित। । मुनि जयन्तविजय, सम्पा० - अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, लेखांक ११४. ॐ संवत् १२०८ फागुण सुदि १० रवौ श्रीबृहद्गच्छीयसंविग्नबिहारी (रि) श्रीवर्धमानसूरिशिष्यैः श्रीचक्रेश्वरसूरिभिः प्रतिष्ठितं प्राग्वाट वंशीय... मुनि विशालविजय, संग्राहक, सम्पा० - श्रीआरासणातीर्थ, लेखांक ११. इसी प्रकार वि०सं० १२१४ के वडगच्छ से ही सम्बन्धित एक अभिलेख में बृहद्गच्छीय परमानन्दसूरि के गुरु का नाम चक्रेश्वरसूरि और प्रगुरु का नाम वर्धमानसूरि दिया गया है। लेख का मूलपाठ निम्नानुसार है : संवत् १२१४ फाल्गुन वदि शुक्रवारे श्रीबृहद्गच्छोद्भवसंविग्नविहारि श्रीवर्धमानसूरीयचक्रेश्वरसूरिशिष्य ......... श्रीपरमानंदसूरिसमेतैः ......... प्रतिष्ठितं। मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त, लेखांक १४. बृहद्गच्छीय चक्रेश्वरसूरि के गुरु और परमानन्दसूरि के प्रगुरु वर्धमानसूरि को समसामयिकता और नाम साम्य के आधार पर अभयदेवसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि से अभिन्न माना जा सकता है। जहाँ तक दोनों के गच्छ सम्बन्धी समस्या का प्रश्न है, उसका समाधान यह है कि चन्द्रगच्छ और बृहद्गच्छ – दोनों का मूल एक ही होने से इस समय तक आचार्यों में परस्पर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं दिखायी देती है। गच्छीय प्रतिस्पर्धा के युग में भी एक गच्छ के आचार्य दूसरे गच्छ के आचार्यों के शिष्यों को विद्याध्ययन कराना अपारम्परिक नहीं समझते थे। अत: बृहद्गच्छीय चक्रेश्वरसूरि एवं परमानन्दसूरि के गुरु चन्द्रगच्छीय वर्धमानसूरि हों तो यह तथ्य प्रतिकूल नहीं लगता। इस प्रकार चन्द्रकुल (बाद में चन्द्रगच्छ) और बृहद्गच्छ के मुनिजनों का संयुक्त वंशवृक्ष बनता है, वह इस प्रकार है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004033
Book TitleBruhad Gaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2013
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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