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गुणकीर्तिसूरि कालिकाचार्यकथा की प्रशस्ति (वि०सं० १४६१-७६ में उल्लिखित)
हरिभद्रसूरि
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कमलप्रभसूरि (वि० सं० १५२० में सिरोही के अजितनाथ जिनालय में प्रतिमा प्रतिष्ठापक)
बृहद्गच्छ का इतिहास
धनकीर्तिसूरि (वि० सं० १५२० के प्रतिमालेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक कमलप्रभसूरि के साथ उल्लिखित)
लिंबडी के हस्तलिखित जैन ग्रन्थ भण्डार में वि०सं० १५१७ में लिखी गयी कल्पसूत्रस्तवक ११ और कालिकाचार्यकथा १२ की एक - एक प्रति उपलब्ध है जिसे ग्रन्थ भण्डार की प्रकाशित सूची में मडाहडगच्छीय रामचन्द्रसूरि की कृति बतलाया गया है। चूँकि उक्त ग्रन्थभण्डार में संरक्षित हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ अभी अप्रकाशित हैं, अतः ग्रन्थकार की गुरु-परम्परा, ग्रन्थ के रचनाकाल आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलपाती ।
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इसी गच्छ में विक्रम सम्वत् की १६वीं शताब्दी के तृतीयचरण में मुनिसुन्दरसूरि के शिष्य पद्मसागरसूरि १३ नामक एक विद्वान् मुनि हो चुके हैं, जिनके द्वारा रचित कयवन्नाचौपाइ, स्थूलभद्रअठवीसा शांतिनाथस्तवन, वरकाणापार्श्वनाथस्तवन, सोमसुन्दरसूरिहिंडोला, आदि कुछ कृतियाँ मिलती हैं। ये मरु-गुर्जर भाषा में रचित हैं। कयवन्नाचौपाई की प्रशस्ति १४ में रचनाकार ने अपने गुरु तथा रचनाकाल आदि का उल्लेख कियाहै—
आदि :
सरस वचन आपे सदा, सरसति कवियण माइ, पणमणि कवइन्ना चरी, पभणिसु सुगुरु पसाइ । मम्माडहगच्छे गुणनिलो श्रीमुनिसुन्दरसूरि पद्मसागरसूरि सीस तसु पभणे आणंदसूरि ।
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