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अध्याय-७
१८९
जयचन्द्रसूरि (वि०सं० १४८२-१५२७) ३९ प्रतिमालेख
जयरत्नसूरि (वि०सं० १५४७) १ प्रतिमालेख
भावचन्द्रसूरि
चारित्रचन्द्रसूरि (वि०सं० १५३६) १ प्रतिमालेख
मुनिचन्द्रसूरि (वि०सं० १५५३-१५९१) ९ प्रतिमालेख
विनयचन्द्रसूरि (वि०सं० १५९८) १ प्रतिमालेख अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मित पूर्णिमापक्ष-भीमपल्लीयाशाखा की उक्त छोटी-छोटी और दो अलग-अलग गुर्वावलियों का उक्त आधार पर परस्पर समायोजन सम्भव नहीं हो सका, अत: इसके लिए पूर्णिमागच्छसी इस शाखा से सम्बद्ध साहित्यिक साक्ष्यों पर भी दृष्टिपात करना अपरिहार्य है।
पार्श्वनाथचरित की वि०सं० १५०४ में प्रतिलिपि की गयी एक प्रति की दाताप्रशस्ति में भीमपल्लीयाशाखा के पासचन्द्रसूरि (पार्श्वचन्द्रसूरि) के शिष्य जयचन्द्रसूरि का उल्लेख है।२ प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि एक श्रावक परिवार ने अपने मातापिता के श्रेयार्थ उक्त ग्रन्थ की एक प्रति जयचन्द्रसूरि को प्रदान की। जयचन्द्रसूरि की प्रेरणा से वि०सं० १४८२/ई० सन् १४२६ से वि०सं० १५२६/ई० सन् १४६१ के मध्य प्रतिष्ठापित ३९ जिनप्रतिमायें आज मिलती हैं, जिनका अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत उल्लेख आ चुका है। पूर्णिमागच्छीय किन्हीं भावचन्द्रसूरि ने स्वरचित शांतिनाथचरित ३ (रचनाकाल वि०सं० १५३५/ई० सन् १४७९) की प्रशस्ति में अपने गुरु का नाम जयचन्द्रसूरि बतलाया है, जिन्हें इस गच्छ की भीमपल्लीयाशाखा के पूर्वोक्त जयचन्द्रसूरि से समसामयिकता, गच्छ, नामसाम्य आदि के आधार पर एक ही व्यक्ति माना जा सकता है। ठीक इसी प्रकार इसी शाखा के भावचन्द्रसूरि (वि०सं०१५३६ के प्रतिमालेख में उल्लिखित) और शांतिनाथचरित के रचनाकार पूर्वोक्त भावचन्द्रसूरि को एक दूसरे से अभिन्न माना जा सकता है ।
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