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बृहद्गच्छ का इतिहास __घोघा स्थित नवखण्डा पार्श्वनाथ जिनालय के निकट भूमिगृह से प्राप्त २४० धातु प्रतिमाओं में से ६ प्रतिमाओं पर पिप्पलगच्छीय मुनिजनों के नाम उत्कीर्ण हैं।११ इन प्रतिमाओं पर ई० सन् १३१५, १४४७, १४४९, १४५० और १४५७ के लेख खुदे हुए हैं। चूँकि ढांकी ने अपने उक्त निबन्ध में प्रतिमा लेखों का मूल पाठ नहीं दिया है, अत: इन लेखों में आये आचार्यों के नाम आदि के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती।
___ जैसा कि लेख के प्रारम्भ में कहा जा चुका है इस गच्छ की दो शाखाओं - त्रिभवीया और तालध्वजीया - का पता चलता है। प्रथम शाखा से सम्बद्ध पिप्पलगच्छगुरु-स्तुति और पिप्पलगच्छ गुर्वावली१२ का पूर्व में उल्लेख आ चुका है। इसके अनुसार धर्मदेवसूरि ने गोहिलवाड़ (वर्तमान गुहिलवाड़, अमरेली, जिला भावनगर, सौराष्ट्र) के राजा सारंगदेव को उसके तीन भव बतलाये इससे उनकी शिष्यसन्तति त्रिभवीया कहलायी । यह सारंगदेव कोई स्थानीय राजा रहा होगा । पिप्पलगच्छीय प्रतिमा लेखों में किन्ही धर्मदेवसूरि द्वारा वि०सं० १३८६ में प्रतिष्ठापित एक जिन प्रतिमा का उल्लेख आ चुका है१३। चूंकि उक्त गुरुस्तुति में रचनाकार ने अपने गुरु धर्मप्रभसूरि को त्रिभवीयाशाखा के प्रवर्तक धर्मदेवसूरि से ५ पीढ़ी बाद का बतलाया है, साथ ही पिप्पलगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों की पूर्वप्रदर्शित तालिका में भी धर्मप्रभसूरि (वि०सं०१४७१-१४७६) का प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख मिलता है। इस प्रकार अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित धर्मदेवसूरि और धर्मप्रभसूरि के बीच लगभग १०० वर्षों का अन्तर है और इस अवधि में पाँच पट्टधर आचार्यों का पट्टपरिवर्तन असम्भव नहीं, अत: समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर वि०सं० १३८६/ई०सन् १३३० में प्रतिमाप्रतिष्ठापक पिप्पलगच्छीय धर्मदेवसूरि और इस गच्छ के त्रिभवीया शाखा के प्रवर्तक धर्मदेवसूरि एक ही व्यक्ति माने जा सकते हैं। ठीक यही बात पिप्पलगच्छगुरुस्तुति के रचनाकार के गुरु धर्मप्रभसूरि और पिप्पलगच्छीय धर्मप्रभसूरि के बारे में भी कही जा सकती है।
४७ ऐसे भी प्रतिमालेख मिलते हैं जिन पर स्पष्ट रूप से पिप्पलगच्छ त्रिभवीयाशाखा का उल्लेख है१।।
अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर पिप्पलगच्छ की त्रिभवीयाशाखा के मुनिजनों की गुरु-परम्परा का जो क्रम निश्चित होता है, वह इस प्रकार है -
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