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बृहद्गच्छ का इतिहास
सुदि ५ रवौ श्रीजीराउलगच्छे लिखितं कीकी जाउरनगरे श्रीविजयहर्षगणि शिष्य रंगविजयनी प्रति भंडारी मूकी ||
कयवन्नाचौपाई के रचनाकार देवसुन्दरसूरि के गुरु रामकलशसूरि किसके शिष्य थे। अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित सागरचन्द्रसूरि, देवरत्नसूरि आदि से उनका क्या सम्बन्ध था, प्रमाणों के अभाव में यह ज्ञात नहीं होता। ठीक यही बात श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र की वि०सं० १६०२ में प्रतिलिपि करने वाले जीरापल्लीगच्छीय रंगविजय और उनके गुरु विजयहर्षगणि के बारे में कही जा सकती है, फिर भी उक्त साहित्यिक साक्ष्यों से वि०सं० की १७वीं शताब्दी के प्रथम दशक तक इस गच्छ का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। इसके बाद इस गच्छ से सम्बद्ध कोई साक्ष्य न मिलने से यह अनुमान व्यक्त किया जा सकता है कि इस समय तक इस गच्छ के अनुयायी श्रमण किन्ही प्रभावशाली गच्छों विशेषकर तपागच्छ के अनुयायी हो गये होंगे । यद्यपि त्रिपुटीमहाराज ने वि०सं० १६५१ में इस गच्छ के किन्हीं देवानन्दसूरि के पट्टधर सोमसुन्दरसूरि के विद्यमान होने का उल्लेख किया है, परन्तु अपने उक्त कथन का कोई आधार या सन्दर्भ नहीं दिया है, अतः इसे स्वीकार कर पाना कठिन है ।
सन्दर्भ :
१.
“बृहद्गच्छगुर्वावली”, मुनि जिनविजय, संपा० विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह, पृ० ५२-५५. मुनि जयन्तविजय, अर्बुदाचलप्रदक्षिणा, पृ० ८७-९७.
२.
डॉ०
३-४. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग-१, द्वितीय संशोधित संस्करण, संपा०, जयन्त कोठारी, पृ० ३३३.
अमृतलाल मगनलाल शाह, संपा०, श्रीप्रशस्तिसंग्रह, भाग-२, प्रशस्ति क्रमांक ३६६, पृ० १००. त्रिपुटी महाराज, जैन परम्परानो इतिहास, भाग - २, प्रथम संस्करण, पृ० ५९९.
५.
६.
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